नौकरी करें या नहीं?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! कुछ ही महीने हुए हैं आपसे यूट्यूब के माध्यम से जुड़े हुए। ‘वैराग्य शतकम’ का इक्कीस्वाँ श्लोक मुझे सता रहा है, मेरे वजूद पर सवाल उठा रहा है। मैं कॉर्पोरेट में काम कर रहा हूँ तीन साल से, आप समझ ही गए होंगे मैं पापियों के लिए काम कर रहा हूँ। क्या करूँ छोड़ दूँ?

आचार्य प्रशांत: पापियों के लिए काम कर रहे हो ठीक है लेकिन कौन है वह पापी यह ठीक से समझे नहीं। बहुत जल्दी दोष रख दिया तुमने उनके ऊपर जो तुम्हारे साथ काम करते हैं या जिन्होंने तुम्हें नौकरी दी है। लोग नौकरियाँ छोड़ते हैं, बहुत नौकरियाँ छोड़ते हैं एक से दूसरी में जाते हैं। नौकरी देने वाला पापी होता अगर, मालिक में पाप होता अगर तो नौकरी छोड़ने से पाप हट जाना चाहिए था। क्योंकि लोग नौकरियाँ तो खूब छोड़ते हैं। लेकिन एक नौकरी छोड़ते हैं तो दूसरी पर जाते हैं क्योंकि पाप मालिक में नहीं है, नौकर में है। पापियों के लिए काम तो निश्चित कर रहे हो, वह पापी तुम स्वयं हो। वह पापी तुम्हारी वासना और वृत्ति है, भीतर बैठी है वासना, भीतर बैठा है डर। वह तुम को ले जाता है तमाम दुकानों पर, तमाम मालिकों की चौखट पर। जब तक भीतर पापी तुम्हारे बैठा रहेगा तब तक नौकरियाँ छोड़ने से कुछ नहीं होगा, एक नौकरी छोड़ोगे दूसरी कर लोगे। हो सकता है दूसरी नौकरी का आकार प्रकार बहुत भिन्न हो। हो सकता है दूसरी नौकरी को तुम नौकरी का नाम भी न दो। हो सकता है तुम सारी पारंपरिक नौकरियाँ छोड़कर घर पर बैठ जाओ, लेकिन फिर भी तुम किसी न किसी की ग़ुलामी ज़रूर कर रहे होगे। कोई ना कोई तुम्हारा मालिक ज़रूर बना होगा क्योंकि तुम्हारे भीतर जो वृत्ति है वह कहती ही यही है कि तुम बड़े छोटे हो, तुम किसी को मालिक बनाओ। भीतर जो हीनता बैठी हुई है, वह आश्रय माँगती है, वह सहारा माँगती है। उसे अपने पर भरोसा नहीं है वह किसी न किसी के दरवाजे जाकर ज़रूर नाक रगड़ेगी।

भर्तहरि तो कह गए पीने को साफ पानी है, पहनने को छाल है, खुले आसमान के नीचे सो जाओ, जो मिले खा लो पी लो, तुम्हें यह स्वीकार कहाँ है? तुम कहते हो अगर यह सब हो गया तू जीवन व्यर्थ हो जाएगा और भर्तहरि की बातों को शाब्दिक तौर पर मत लो। अगर वह कह रहे हैं छाल पहनो और पीने के लिए मधुर पानी हो, खाने के लिए फल हो, सोने के लिए पृथ्वी हो तो इसका आशय है कम से कम में गुजारा और कम से कम से यह न समझ लेना कि मन को मारा जा रहा है। ‘कम’ से आशय है ठीक उतना ही, जितना तुम्हें वास्तव में चाहिए। तो जब कम-से-कम कहा जा रहा है तो वह कुछ कम नहीं है, वह ठीक उतना ही है जितना तुम्हें वास्तव में चाहिए पर भीतर तुम्हारे कोई बैठा है, जिसे कुछ पता नहीं है कि वास्तव में तुम्हें कितना चाहिए। वह बड़ा भूखा है और वह ऐसा भूखा है कि उसे अपनी भूख का भी कुछ पता नहीं है। भूख का भी सिर्फ उसे एक धुंधला सा एहसास है। कि जैसे उसे रटा दिया गया हो कि…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org