नैतिकता, धार्मिकता का भ्रामक विकल्प

क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः।

निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः ॥ ९२ ॥

~ अष्टावक्र महागीता (१८.९२)

(योगी निष्कपट, सरल और चरित्रवान होता है। उसके लिए स्वच्छंदता क्या, संकोच क्या और तत्त्व विचार भी क्या)

आचार्य प्रशांत: न पाप न पुण्य —

जब धर्म विषैला हो जाता है तो नैतिकता बन जाता है

यही समझा रहे हैं अष्टावक्र। नैतिकता की आवश्यकता ही तब पड़ती है जब आदमी स्वभाव से हटकर के, भ्रष्ट होकर के सत्य से अपनेआप को दूर कर लेता है, दूर मान लेता है। ये जो मान्यता से घिरा हुआ आदमी है, ये बड़ा बेईमान आदमी है। ये सीधे-सीधे सरल होकर के सत्य में जाना नहीं चाहता। ये कहता है — “मैं जहाँ हूँ वहीं रहूँगा, मुझे थोड़ी नैतिकता दे दो”, तो जो नैतिक आदमी है वो कभी धार्मिक इसीलिए हो ही नहीं सकता क्योंकि वो नैतिक है ही इसीलिए क्योंकि सत्य से दूर है अन्यथा नैतिक हो नहीं सकता था।

नैतिकता समझ लीजिए ऐसी है कि हम-तुम अगल-बगल बैठे हैं लेकिन बात टेलीफ़ोन से कर रहे हैं क्योंकि मेरा अहंकार मुझे तुमसे सीधे-सीधे बात करने नहीं देगा, इसीलिए तुम बगल में बैठे हो पर मैंने एक टेलीफ़ोन की लाइन बीच में डाली हुई है जिसका नाम है — ‘नैतिकता’। ये सत्य तक पहुंचने का तरीका एक छम-आचरण है, एक पुरानी स्मृति है कि जब निर्दोष हुआ करते थे तब कैसे थे — वैसे ही रहे आओ। या किसी और ने बता दिया है कि जो निर्दोष होता है वो इस प्रकार का आचरण…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org