निसंकोच संदेह करो; श्रद्धा अंधविश्वास नहीं
प्रश्नकर्ता: सर, जब हम वहाँ बैठे हुए थे, तो थोड़ी थकान-सी लग रही थी, और ठण्ड भी लग रही थी। फिर मेरे मन में सवाल उठा कि “मैं यहाँ क्यों हूँ?” शहर में ठाठ थी, कितने आराम से था। तब तो मैंने अपने मन को समझाया इस संदेह को लेकर। फिर भजन गाने लग गया और गाते-गाते पता भी नहीं चला कि संदेह और ठण्ड कहाँ गए। ऐसे सवालों और संदेह का क्या करें?
अक्सह्र्य प्रशांत: इस तरह के सवाल आएँगे। देखो ज़्यादातर लोग जो तुम यहाँ बैठे हो, तुमको आध्यात्मिक साहित्य में कुछ मूलभूत श्रद्धा तो हो गयी है। हो गयी है न? तुम्हारी वो हालत तो अब रही नहीं है कि कोई तुम्हारे सामने कबीर का नाम ले और…