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निष्ठा-किसके प्रति?

आदमी का मन बंटा-बंटा जीता है। हज़ार खण्डों में विभक्त रहता है और मन का जो मूल है, उसका जो केंद्र है, वो समर्पित रहता है परमात्मा को। उसका समर्पण बदल नहीं सकता। बाकी सारे खंड आते-जाते रहते हैं।

मन पर अभी कुछ छाया है; थोड़ी देर बाद कुछ और छाएगा। मन का जो हिस्सा अभी काम की बात कर रहा था, थोड़ी देर बाद आराम की बात करेगा। मन का जो हिस्सा अभी एक दुकान पर खड़ा था, वो अब दूसरी दूकान पर चला जाएगा। मन पर अभी घर छाया हुआ था, थोड़ी देर में दफ़्तर छा जाएगा। मन के सारे बाकी हिस्सों का स्वाभाव चलायमान है। वहां पर संसार आता-जाता रहता है। संसार के हज़ारों रंग उठते-गिरते रहते हैं।

‘मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोय’।

पर मन के केंद्र का रंग तो कभी नहीं बदलता। वो तो एक ही है।

‘एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय’।

तो कैसे संभव हो पाएगा कि पूरा मन एक ही रंग में हो जाए?

मान लीजिए कि कुछ ऐसा भी आपको मिल गया है, जिसका खिचांव बहुत तगड़ा है। आप गहराई से आसक्त हो गए हैं, किसी स्त्री के प्रति, किसी पुरुष के प्रति या धन आपको गहरा लालच दे रहा है। मान लीजीए, ऐसा हो भी गया है। तो पूरा मन भी यदि उसकी और खिंचेगा भी, तो भी मन कुछ ऐसा रहेगा, जो उसकी ओर नहीं खिंचेगा। क्या? मन का केंद्र। वो तो नहीं खिंचेगा ना? तो मन तो अभी भी एक रंग नहीं हो पाया ना?

मन का केंद्र तो किसको पुकार रहा है लगातार?

वो तो उसको ही पुकार रहा हैं ना लगातार, जो रंगों के परे है, रंगातीत है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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