निष्कामता ही श्रेष्ठ जीवन है
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।१८।।
इस संसार के कर्मों के अनुष्ठान से निष्कामी मनुष्य को कोई प्रयोजन नहीं रहता फिर, और ऐसे मनुष्य को कर्मत्याग की कोई आवश्यकता नहीं रहती। ऐसे मनुष्य के लिए संसार में किसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु आश्रय करने योग्य भी कुछ नहीं है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १८
आचार्य प्रशांत: “इस संसार के कर्मों के अनुष्ठान से निष्कामी मनुष्य को कोई प्रयोजन नहीं रहता फिर।” जो इस संसार में साधारण कर्म चक्र चलता है, वो कहता है, ‘ये चलने दो, मुझे पता है मुझे क्या करना है। दुनिया अपना खेल देखे, मैं अपना खेल देखूँगा।‘
“और ऐसे मनुष्य को कर्मत्याग की कोई आवश्यकता नहीं रहती।” न वो ये कहता है कि, ‘मैं कुछ कर्म करूँगा ही नहीं।’ वो कहता है, ‘करूँगा, पर वो नहीं करूँगा जो तुम करते हो।’ न तो वो दुनिया के कर्मानुष्ठान में लिप्त होता है, न ही वो कर्म का त्याग कर देता है। ये महीन बात है, समझो! सूक्ष्म चीज़ है।
जीना है खुलकर, खेलना है, पक्के खिलाड़ी की तरह खेलना है, पर वो खेल नहीं खेलना है जो ये सब खेल रहे हैं; ये गली क्रिकेट खेल रहे हैं। छी! प्लास्टिक की गेंद से। बैडमिंटन के रैकेट को क्रिकेट का बल्ला बनाकर। तुम्हें इनका खेल काहे को खेलना है? इनके खेल में क्या पाते हो? बस कुछ नहीं — पड़ोस की आंटी का शीशा तोड़ दिया, वो रोज़ गाली देती है। इस खेल में तुम चैम्पियन बन भी गए तो क्या मिलेगा? प्लास्टिक की गेंद, बैडमिंटन का बल्ला, ये खेल नहीं…