निन्दा कहाँ से? अहं का स्त्रोत?
निन्दक तो है नाक बिन, सोहै नकटी माहि।
साधुजन गुरुभक्त जो, तिनमे सोहै नाही॥
निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥
~ गुरु कबीर
आचार्य प्रशांत: निंदक तो है नाक बिन। नाक से अर्थ है — मान, कीमत। उसकी अपनी कोई कीमत नहीं होती है। उसकी अपनी कोई कीमत नहीं हो सकती है, जिसमें निंदा का भाव हो, क्योंकि निंदा करने का अर्थ ही यही है कि पूरी बात देखी नहीं। जहाँ आधी-अधूरी तस्वीर दिखाई देगी, वहीं पर लगेगा कि कुछ ऐसा हुआ है जो नहीं होना चाहिए था। कोई ऐसा है जैसा उसे नहीं होना चाहिए।
ऐसा सिर्फ तब लग सकता है जब एक बहुत संकीर्ण दृष्टि हो, जब बात पूरी दिखाई ही ना दे रही हो। दुनिया में जो कुछ भी जैसा है, उसकी अपनी एक यात्रा है। उस यात्रा के बिना वो वैसा हो नहीं सकता था। चक्र पूरा करके ही वो वहाँ तक पहुँचा है और जहाँ अभी पहुँचा है, वहाँ वो सदा रहेगा नहीं। वहाँ से वो आगे बढ़ता ही रहेगा। जिधर को भी आगे बढ़ेगा, जहाँ पर भी अब उसके कदम पड़ेंगे, पग-पग पर अपूर्णता ही है।
वो अपूर्णता किसी एक खास दृष्टि से देखने पर आपको अच्छी भी लग सकती है। दूसरी दृष्टि से देखने पर वही अपूर्णता निंदा योग्य लगेगी, अंतर सिर्फ दृष्टि का है। था वो पहले भी यात्रा पर, है वो अभी भी यात्रा पर। यात्रा अभी पूरी हुई नहीं है। वो दृष्टि है जो निंदा करती है क्योंकि दृष्टि भी स्वयं अपूर्ण है। दृष्टि उससे जो चाहती थी, वो उसको वहाँ दिखाई दे नहीं रहा है। इस कारण निंदा की ज़रूरत पड़ती है। “निंदक तो है नाक बिन”।
जब तक पूरी बात दिखाई नहीं देगी, निंदा तब तक रहेगी-ही-रहेगी। ये वैसा ही होगा जैसे कोई पाप की निंदा करे और…