निंदा का सुख!

इंसान दूसरों के भीतर सिर्फ़ कमियाँं ही नहीं देखता, वो दूसरों को ऊँचा चढ़ा कर आदर्श भी बनाता है। असल में हम दूसरों को जब भी देखते हैं, तो दो ही तरीके से देखते हैं। पहला, इसमें खोट क्या है। दूसरा, इसमें प्रशंसनीय क्या है।

मैंने अपने लिए कुछ मूल्य निर्धारित कर रखे हैं। उन मूल्यों पर मैंने तुमको तोला और पाया कि हल्के हो। तो मैंने कहा, ‘खोट है इसमें कुछ’। फिर मैंने किसी और को लिया और मैंने कहा, ‘वो तो बड़ा तारीफ़ के काबिल है’। और तारीफ़ के काबिल क्यों है? क्योंकि जिन बातों को मैं समझता हूं कि बड़ी कीमती हैं, उन पर वो खरा उतरता है।

तुम्हारी निंदा करके मैंने इतना ही किया कि अपने आप को ठीक ठहराया।

मान लो मैंने एक मूल्य बांध रखा है कि सफ़ेद रंग, गोरा रंग बड़ा अच्छा होता है। तुम्हारी निंदा करके, मैं अपने मूल्य की पुष्टि करता हूं। मैं कहता हूं कि जो मैंने सोचा है, दुनिया में ‘वही’ ठीक है। उसकी तारीफ़ करके भी मैं यही कहता हूं कि मैंने जैसा सोचा है, दुनिया ‘वैसी’ ही है। दुनिया के केंद्र पर मैंने अपने आप को ही रखा हुआ है। मैं क्या सोचता हूं, उसी के मुताबिक कोई ‘निंदनीय’ हो जाता है, कोई ‘प्रशंसनीय’ हो जाता है।

तो दूसरे की बुराई करो, चाहे दूसरे की बड़ाई करो, तुम काम एक ही कर रहे हो। वो काम है, अपने अहंकार को बढ़ावा देना।

चाहे किसी को छोटा बोलो, चाहे किसी को बड़ा बोलो, बोलने वाले तो तुम ही हो। तो उन दोनों से बड़े तुम हो। ‘तू बड़ा है, तू छोटा है और इसका निर्णय करने वाले हम हैं’। तो दोनों से बड़ा कौन हुआ? वो हम हुए।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org