ना सुख का आलिंगन ना दुःख का प्रतिकार
हम करते क्या हैं कि अपने सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ती का साधन आध्यात्मिकता को बना लेते है।
तो मन की जैसी स्थिति होती है, जैसे उसके संस्कार होते हैं, जैसे उसपर प्रभाव चढ़े होते हैं, उसके अनुरूप विषय दिख गया तो नाम देते हो ‘सुख,’ उसके अनुरूप विषय नहीं दिखा, या उससे प्रतिकूल विषय दिख गया तो नाम देते हो, ‘दुःख।’ बस बात इतनी सी है। हमने पूरी दुनिया को दो ही हिस्सों में तो बाट रखा है, अनुकूल-प्रतिकूल और इसी सहारे हम ज़िंदा है।
सुख हम भोगते हैं, भोग-भोग कर और दुःख हम भोगते हैं, भाग-भाग कर। भोगते हम दोनों को है। ना ‘सुख’ को भोगने की आकांशा, ना ‘दुःख’ से भागने का आवेग।
क्योंकि दुनिया दुःख से पीछे भागती है, तुम पीछे मत भागना। तुम कायम रहना। तुम अपने केंद्र पर विराजमान रहना, तुम पदच्युत मत हो जाना। ना सुख का आलिंगन ना दुःख का प्रतिकार।
पर हम जब दुःख से मुक्ति चाहते है, हम सुख से आसक्ति कायम रखते है। ये हो नहीं पाएगा।
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