‘ना’ बोलने में झिझक

प्रश्नकर्ता (प्र): आचार्य जी, जब कोई कुछ बोलता है, तो न चाहते हुए भी ‘ना’ नहीं बोल पाता हूँ।

आचार्य प्रशांत (आचार्य): ‘ना’ तो तुम बोलते हो, ऐसा तो नहीं है कि ‘ना’ नहीं बोल पाते।

ऐसा नहीं है। ‘ना’ तो हम बोलते हैं, वहाँ हमारा गणित होता है। हमें अच्छे से पता है कहाँ ‘हाँ’ बोलनी है और किस सीमा के बाद ‘ना’ बोल देना है। ऐसा नहीं है कि हम ‘ना’ नहीं बोल पाते। तुम्हारा सवाल यह नहीं होना चाहिए कि — “मैं ना क्यों नहीं बोल पाता?” तुम्हारा सवाल ये होना चाहिए कि — “मेरा ये गणित कैसा है जो मुझे दुःख देता है?” तुम्हारी ‘हाँ’ और ‘ना’ ठीक नहीं बैठ रही — यह है तुम्हारा सवाल।

तुम ‘ना’ भी बोलते हो, तुम ‘हाँ’ भी बोलते हो, बोलते तो तुम दोनों ही हो। मगर जहाँ ‘ना’ बोलनी चाहिए वहाँ ‘हाँ’ बोल आते हो, जहाँ ‘हाँ’ बोलनी चाहिए वहाँ ‘ना’ बोल आते हो!

आमतौर पर हम ‘हाँ’ उस बात को बोलेंगे, उस व्यक्ति को बोलेंगे, उस घटना को बोलेंगे, जो हमें हमारे जैसा बनाए रखती है। अपने जैसा बने रहने में हमने सुविधा बना ली है। जो हमें बदलती है, हमें तोड़ती है, हमें खोलती है…..हम उसे ‘ना’ बोलते हैं।

अब अगर मनीष (प्रश्नकर्ता) ने अपनी छवि ही यह बना ली हो कि — ‘मैं वो हूँ जो ‘ना’ नहीं बोलता’ — तो ‘ना’ बोलने में मनीष को दिक़्क़त आएगी। मनीष अब उस हर चीज़ को ‘ना’ बोलेगा जो इस छवि को तोड़ती है कि — ‘मनीष ‘ना’ नहीं बोलता’। ध्यान दोगे तभी समझ आएगी बात। मैं कौन? मनीष, जिसकी छवि ही बन गई है कि — ‘मनीष वो जो ‘ना’ नहीं बोलता’।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org