नादान परिंदे

ओ नादान परिंदे घर आजा, घर आजा।

क्यों देश-विदेश फिरे मारा क्यों हाल-बेहाल थका हारा क्यों देश-विदेश फिर मारा तू रात-बीरात का बंजारा ओ नादान परिंदे घर आजा।

~ फ़िल्म (रॉकस्टार)

प्रश्नकर्ता: उक्त पंक्तियों को मैं आजकल अपनी वैचारिक प्रक्रिया से जोड़कर देख रहा हूँ और पा रहा हूँ कि मन में विचारों की दौड़ पहले की तरह आती है, पर अब बीच में ही सजग हो जाता हूँ। और कभी-कभी इसे रोकने की कोशिश करता हूँ तो फिर यह और तेज़ हो जाती है। रोकते समय कुछ-कुछ यही कहता हूँ कि — “मन क्यों भाग रहा है, वापस क्यों नहीं आ जाता?” जानते हुए भी कि मन रोकने से रुकेगा नहीं, बार-बार मन को रोक कौन रहा है? क्या यह भी मन की ही चाल है? कृपया स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: मन माने ‘ऊर्जा’। समझना ‘ऊर्जा’ क्या है। ऊर्जा, पदार्थ, संसार एक हैं। संसार माने ऊर्जा। संसार अभी तुम्हें पदार्थ-रूप में दिखाई देता है। पदार्थ रूप में नष्ट हो सकता है। हो सकता है कि पदार्थ मिट जाए, ऊर्जा मात्र बचे। ऊर्जा पदार्थ बन जाती है, ऊर्जा अनुभव बन जाती है। और जो तुम्हें अनुभव होने लगता है, उसे तुम ‘पदार्थ’ का नाम देने लग जाते हो।

आइंस्टीन को वैसे तो सभी जानते हैं, पर उनका जो एक समीकरण सामान्य रूप से भी बहुत प्रचलित हो गया, वह क्या है? ई=(एमसी)^२। जो लोग भौतिकी नहीं भी पढ़े हुए हैं, वह भी जानते हैं कि — ई=(एमसी)^२। लोग टी-शर्ट पर छपवा कर घूम रहे होते हैं — ई = (एमसी)^२। यह क्या है? पदार्थ और ऊर्जा एक है, यह बताने वाला समीकरण।

मन की दुनिया में पदार्थ-ही-पदार्थ है

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org