ध्यान वो जो अनवरत चले
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। मेरा मन अभी भी उलझाव महसूस करता है। हालाँकि मैं हर रोज़ ध्यान करता हूँ, पर सुधार नहीं दिख रहा है। कृपया बताएँ कि मैं अपनी नित्य क्रियाओं में ऐसा क्या बदलाव लाऊँ जिससे ये उलझाव कम होने लगे। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: ये ग़ौर करना कि ध्यान से तुमको उठा क्या देता है। ध्यान, तुम कह रहे हो, करते हो; कोई क्रिया होगी जिसे तुम करते होगे। किसी गतिविधि को ध्यान कह रहे हो, तभी तो उसको ‘करते हो’ न। कोई कर्म होगा तभी कह रहे हो उसको ‘करता हूँ’। तो वो जो भी कर्म है ध्यान का, वो कर्म रुक क्यों जाता है, इस पर ध्यान देना। निरीक्षण करके मुझको बताना।
सुबह सात से आठ, उदाहरण के लिए, तुम बैठते हो ध्यान करने। मुझे बताना कि आठ बजे उठ क्यों जाते हो। कौन-सी चीज़ है जो तुम्हारा ध्यान खंडित कर देती है? और मुझे बताना कि सात से आठ के मध्य भी कौन-सी चीज़ें हैं जो तुम्हारे ध्यान को विचलित कर देती हैं। समझ ही गए होगे, मैं जानना चाहता हूँ कि क्या है जो तुम्हारे ध्यान पर भारी पड़ता है।
कोई तो वजह होगी न कि तुम कहते हो कि आठ बजे ध्यान भंग कर ही देना है। ध्यान अगर वास्तव में तुम्हें बहुत प्यारा होता तो तुम आठ बजे उठ क्यों जाते? ज़रूर कोई ऐसी चीज़ मिल जाती होगी जो ध्यान से भी ज़्यादा कीमती होगी, तो तुम कहते हो, “चलो उठना ही पड़ेगा आठ बजे।” उस पर ग़ौर करो।
तुमने पूछा है न कि “आचार्य जी, मैं अपनी नित्य क्रियाओं में क्या बदलाव लाऊँ कि उलझन कम होने लगे?”
तुम्हारी नित्य क्रियाओं में ही कुछ इतना आकर्षक है जो तुम्हारे ध्यान को भंग कर देता है। तुम्हारी नित्य क्रियाओं में ही कुछ इतना रसीला है कि तुम्हारे ध्यान में विक्षेप बन जाता है। वो क्या है?