ध्यान की सर्वोत्तम पद्धति
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पद्धतियाँ हज़ारों हैं, लाखों हैं। जो तुम्हारी अवस्था है उसके हिसाब से पद्धति है। और ध्यान की तुम्हारे लिए उचित पद्धति क्या है, ये तुम्हें ध्यान ही बता सकता है। या तो तुम्हारा ध्यान, या किसी और का ध्यान।
मैं चाहता हूँ कि ध्यान तुम्हारा ऐसा रहे, कि जब वो टूटने लगे, तो तुम्हें पद्धति बता दे बचने की।
ऑटो-रिपेयर (स्व-चालित सुधार) की उसमें सुविधा रहे। जैसे शरीर में होती है न, कि शरीर में चोट लगती है तो शरीर खुद ही उसे ठीक कर लेता है।
तो ध्यान में भी ऐसी जीवंतता रहे, कि ध्यान टूटा नहीं और ध्यान खुद ही उपाय बता दे कि अब इसको ठीक कैसे करना है।
जीवन में प्रतिपल बदलते माहौल हैं। हर माहौल के लिए कोई तुम्हें विधि नहीं दे गया। जिन्होंने बड़ी करुणा के साथ तुम्हें विधियाँ दी भी हैं, वो बेचारे सौ, सवा सौ, चार सौ, पाँच सौ पे जाकर अटक गए। इससे ज़्यादा कौन अब बताएगा। लेकिन जीवन में स्थितियाँ कितनी हैं, सौ, चार सौ, या करोड़ों?
तो तुम्हें ध्यान की करोड़ों विधियाँ चाहिएँ। और ये बात तुम्हें किताब में नहीं मिलेगी। इसके लिए तो तुम्हें स्वयं ही सजग रहना पड़ेगा, कि इस माहौल में ध्यान का क्या अर्थ है।
ध्यान को फिर अनवरत होना पड़ेगा, लगातार।
ध्यान अगर लगातार है, तो बाहर जो तुम कर्म करोगे, वो कर्म ही ध्यान की विधि बन जाएगा।
ध्यान ही तुम्हें ध्यान की विधि दे रहा है।
अब तुम्हारे कर्म ऐसे हो रहे हैं, कि तुम्हारा ध्यान बचा रहे, और गहराए।
वो ध्यान श्रेष्ठ है।
वही ध्यान चलेगा, बचेगा। बाकी तो ध्यान तुम कुछ समय को लगाओगे, फिर उचट जाएँगे। उस ध्यान में कुछ रखा नहीं, जो टूट जाता हो। लोग ध्यान में बैठते हैं, फिर खड़े भी तो हो जाते हैं।
मैं कहता हूँ कि इसमें कोई गलती नहीं कि तुम ध्यान लगाने बैठे सुबह सात बजे। पर उठ क्यों गये? ध्यान करने में बुराई नहीं है, पर जो ध्यान करना शुरु करे वो फिर ध्यान तोड़े नहीं।
तो ऐसी विधि मत आज़माओ जिसका टूटना लाज़मी है।
जो प्रचलित विधियाँ हैं, वो तुम्हें ये तो बताती ही हैं कि ध्यान कैसे शुरु होगा, और फिर ये भी तो बता देती हैं कि उठ कब जाना है। और तुम उठे नहीं, कि तुम्हारे दिमाग में घर, दुकान, बाज़ार चक्कर काटने लगते हैं। तुम उठते ही इसीलिए हो कि — सात बजे बैठे थे, अब आठ बज गए हैं, अब तो दुकान जाने का समय हो गया।
“थोड़ी देर में ऑफिस की बस आ रही है। ध्यान से उठो, बहुत हो गया ध्यान।”