ध्यान की विधियों की हकीकत

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। ओशो ने हमें ध्यान की विधियाँ दी, आप वो भी छीन रहे हैं। अब हम क्या करें?

आचार्य: नहीं, मैं छीन नहीं रहा विधियाँ। मैं कह रहा हूँ कि विधियों को विधियों जितनी ही महत्ता दो, बस। विधि द्वार है। द्वार को द्वार जितनी ही अहमियत दो। द्वार इसलिए नहीं है कि द्वार पर ही ठिठक गए, द्वार पर ही अटक गए, द्वार पर ही घर बना लिया। द्वार इसलिए है कि उसको लॉंघो, कहीं और पहुँचो।

ओशो ने ध्यान की विधियाँ दी। उनके प्रति धन्यवाद रखो। ओशो ने कभी नहीं कहा कि विधियों पर ही अटल हो जाना।

लक्ष्य क्या है,

परमात्मा या विधि?

लक्ष्य क्या है,

शांति या ध्यान का आयोजन?

बस यही याद रखना है। आरंभ करने के लिए, शुरुआत के लिए विधि अच्छी है। पर शुरुआत कर दी, विधि के कारण झलक मिलने लग गई, अब तुम्हारा दायित्व है कि जिसकी झाँकी मिली है, उसके पूरे दर्शन ही कर डालो।

और याद रखना विधि तुम्हें झलक से, झाँकी से ज़्यादा कुछ नहीं दे पाएगी। उसके आगे तो तुम्हें विधि को छोड़कर जाना पड़ेगा न, या झलक से ही पेट भर लेना है? इतनी आसानी से तृप्त हो गए कि झलक मिली, काम चल गया? सिनेमाघर के बाहर पोस्टर लगा है, उसको देखकर ही खुश हो रहे हो? पिक्चर नहीं देखोगे? दिक्कत बस यही है कि पिक्चर देखने के लिए टिकट कटाना पड़ता है और पोस्टर मुफ़्त होता है। पोस्टर है विधि ध्यान की, वो तुम्हें आकर्षित करती है, वो तुमको एक झलक दिखाती है। फिर कहती है कि अब ज़रा जेब हल्की करो। रुपया…

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org