धागा प्रेम का

रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय

टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय

धागा क्या है? जिसके दो छोर हैं, दो सिरे हैं. दो दूरियों के मध्य जो है, सो धागा.

एक ही दूरी है जीवन में, बाकी सारी दूरियां इस एक दूरी से निकलती हैं. स्वयं की स्वयं से दूरी. मन की मन के स्रोत से दूरी. अहंकार की आत्मा से दूरी. बड़ी झूठी, पर बड़ी विकराल दूरियां हैं ये. ऐसी दूरियां जो कभी ख़त्म ही नहीं होतीं. जीवन और कुछ नहीं है, बस इन दूरियों को तय करने की यात्रा है.

कैसे मिटेगी ये दूरी? कैसे होगा मिलन?

प्रेम एकमात्र सेतु है, प्रेम एकमात्र धागा है. प्रेम के अलावा और कुछ है ही नहीं जो इस असंभव दूरी को तय कर सके. प्रेम का अर्थ है: परम की पुकार और मन का उस पुकार पर स्वीकार. जैसे कृष्ण ने पुकारा और राधा नाच उठी. बिलकुल आतंरिक घटना है प्रेम. हमारा अंतस लगातार हमारे अहंकार को पुकारता ही रहता है. वो आवाज़ देता ही रहता है. स्रोत, अंतस परमप्रेमपूर्ण है. उसके पुकारने की कोई सीमा नहीं. वो लगातार बुलाता है, रिझाता है.

जिस क्षण मन पर अनुकम्पा हुई, जिस क्षण मन ने तय किया कि उस पुकार का जवाब देना है, उसी क्षण मन अंतस के प्रेम के रंग में रंग जाता है.

मन को एक नयी अनुभूति होती है, एक गहन तृप्ति, एक गहरा आकर्षण. पर इस गहरे आकर्षण के साथ गहरा अंदेशा भी उठता है. एक गहरी आशंका. मन देखता है कि अगर परम का आमंत्रण स्वीकारेगा तो पुरानी दुनिया छूटेगी. और मन बड़े समय से पुरानी दुनिया का ही अभ्यस्त है, उसके भीतर की सारी सामग्री…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org