धर्म सिर्फ़ अंधविश्वास है!

आचार्य प्रशांत: संजय वाल्मीकि हैं, कह रहे हैं, ‘जिन्हें साइंस (विज्ञान) नहीं पता होती, उन्हीं के लिए भगवान जैसी चीज़ें और अन्धविश्वास और आडम्बर होते हैं’। आगे उन्होंने दो उदाहरण लिये हैं, कह रहे हैं कि पिछले समय में लोगों को नहीं पता था कि बारिश कैसे होती है तो लोगों ने इन्द्र की कल्पना गढ़ ली। और दूसरा उन्होंने उदाहरण लिया है चेचक का, कह रहे हैं, ‘लोग पुराने समय में नहीं जानते थे कि चेचक कैसे होती है तो लोगों ने उसमें माता-मैया वगैरह की कहानियाँ बना लीं’। तो इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए संजय कहते हैं कि आज आप जिसे अध्यात्म कहते हैं वो कल ख़त्म हो जाएगा जब साइंस आगे बढ़ेगी।

बढ़िया, संजय। देखो, अन्धविश्वास और अध्यात्म में बहुत फ़र्क होता है। अच्छा किया कि तुमने अन्धविश्वास की बात की, मैं भी अन्धविश्वास के बहुत ख़िलाफ़ हूँ, उसपर बहुत बोलता हूँ। ठीक है, यहाँ तुमने कहा कि लोगों को जब कुछ नहीं पता होता तो उससे सम्बन्धित कल्पनाएँ बना लेते हैं और फिर उसी की परम्परा चल पड़ती है, यही अन्धविश्वास है, ठीक है। अध्यात्म ऐसा नहीं है, धर्म का एक विकृत रूप जो हो जाता है न, वो कहता है ‘मानो’ और वो कोई चीज़ तुम्हारे सामने रख देता है, कोई वक्तव्य, कोई सिद्धान्त, कोई कहानी, और कहता है, ‘इसको मानो’।और वो कहता है, ‘अगर तुमने इसको नहीं माना तो तुम अधार्मिक हो’ या अन्धविश्वास भी कह देता है कि अगर तुमने इस बात को नहीं माना तो तुम्हारा कुछ नुकसान हो जाएगा।

जैसे कह दिया कि अगर तुम फ़लानी सड़क पर फ़लाने पेड़ के सामने से गुज़र रहे हो, एक बहुत पुराना पेड़ है और वहाँ ये मान्यता हो गयी है कि अगर तुम उसके सामने से बिना रुके और बिना नमस्कार किये गुजर गए तो थोड़ी दूर आगे जाकर के तुम्हारी दुर्घटना हो जाएगी। ऐसी मान्यताएँ होती हैं इस तरह की कि फ़लाना पेड़ है फ़लानी सड़क पर और जो भी लोग उस पेड़ को नमस्कार किये बिना आगे बढ़ जाते हैं आगे उनका एक्सीडेंट (दुर्घटना) हो जाता है, ठीक है। ये अन्धविश्वास है और इसके मूल में क्या बात है? कि कहानी को मानो। क्या कहानी? उन्होंने एक सिद्धान्त बनाया है कि नमस्कार किया तो सुरक्षा, नमस्कार नहीं किया तो दुर्घटना,ये मानने के लिए कहा जा रहा है, कोई प्रमाण नहीं है, कोई पीछे तर्क नहीं समुचित, बस मानने के लिए इसको तुम्हें विवश किया जा रहा है कि मानो।

इसी तरीक़े से बहुत सारी तमाम धार्मिक धाराओं में विकृतियाँ होती हैं जो कहती हैं ‘मानो’, किसी बात को। जैसे ‘इस तरीक़े से सृष्टि की रचना हुई, मानो‘, अब तुम्हेंमानना पड़ेगा कि ऊपर कोई बैठा हुआ है, उसने ऐसे-ऐसे करके दुनिया बनायी, उसने चार दिन में दुनिया बनायी या उसने छः दिन में दुनिया बनायी या उसने ऐसे मिट्टी से लेकर के पहले इंसान बनाया, ये किया, वो किया। कहा ‘मानो’, नहीं मानोगे तो कहेंगे ‘फिर तुम धार्मिक आदमी हो ही नहीं’, फिर तुमको वो अधार्मिक घोषित कर देंगे या कुछ और, ‘काफ़िर’ बोल देंगे,इस तरह से। और कह देंगे कि मानो कि ये जो फ़लाना व्यक्ति था उसने जो कुछ कहा है बिलकुल सही ही कहा है, मानो इस बात को। अब तुम्हें बिलकुल आज़ादी नहीं है पूछने की कि साहब, आप समझा तो दीजिए कि वो जो बात कही गयी है, वो सही कैसे है। मैं उस बात का विरोध नहीं कर रहा, मैं बस समझना चाहता हूँ कि वो बात सही कैसे है। तुमने ये सवाल भी कर दिया तो वो उन लोगों को हज़म नहीं होगा, वो कहेंगे ‘मानो-मानो’, मान्यता, बस मानना पड़ेगा।

वास्तव में तुम फिर उन धर्मों के कहला ही तभी सकते हो जब तुमने पहला कदम ये उठाया हो कि तुमने कहा हो कि मैं मानता हूँ। ये बड़ी गड़बड़ बात है, ये धर्म नहीं है, ये धर्म की विकृति है। जो धर्म शुरुआत ही यहाँ से करता हो कि मैं मानता हूँ, वो धर्म बड़ा गड़बड़ धर्म होगा क्योंकि हमारे मानने का महत्व क्या है? जो मानने वाला है न, उसी को तो अहंकार बोलते हैं, वही तो झूठ है, उसके मानने-न-मानने की कीमत क्या है, उसने तो आज तक जो कुछ माना है, उल्टा-पुल्टा ही माना है। तुम उसे एक चीज़ और मनवा दो, क्या फ़ायदा होगा? उसका मानना कोई वज़न रखता ही नहीं है।

और जब तुम उससे कहते हो, ‘नहीं, शुरुआत यहाँ से कर कि तू मानता है’, तो तुमने ले-देकर के अहंकार को ही वलैडिटी माने वैधता दे दी जैसे कि उसके मानने का कोई महत्व हो। एक इंसान है जो मानता है कि पृथ्वी चपटी है, इंसान ने सैकड़ों सालों तक यही माना है कि अर्थ इस फ्लैट (पृथ्वी चपटी है ), उसी इंसान ने ये भी मान लिया कि फ़लाना ईश्वर है, फ़लाने आसमान पर बैठा है, और फ़लाने दिन वो आसमान को भी वापस खींच लेगा और ईश्वर ने इस-इस तरीके से समाज चलाने के लिए ये-ये नियम बनाये हैं फ़लानी व्यवस्थाएँ बनायीं हैं, इस तरीक़े की बातें उसमें और तुमने ये सब बातें मान लीं। तुम्ही तो हो जो ये भी मान रहे हो या मानते थे बहुत समय तक कि सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण इसलिए होते हैं क्योंकि उनके सामने फ़लाने जानवर आ जाते हैं, या फ़लाने लोग आ जाते हैं, फ़लानी ताक़तें आ जाती हैं, और भी आज भी न जाने कितनी फालतू की बातें हैं जो तुम मानते हो, तुमने एक बात और मान ली। मानने वाले भी तो तुम्ही हो न, तो मान्यता से जिस भी चीज़ की शुरूआत होगी वो चीज़ गलत होगी, सबसे पहले ये समझो। मान्यता सच नहीं होती, शुरुआत सच से होनी चाहिए, मान्यता से नहीं।

तुम अभी इस लायक ही नहीं हो कि तुम कुछ मानो, तुम अभी बस इस लायक हो कि तुम सवाल पूछो। मैं अगर अँधेरे में हूँ जैसे कि सब लोग होते हैं, तो मेरे लिए क्या उचित है, मैं कुछ मानूँ या मेरे लिए ये उचित है कि मैं अपनी जान लगाकर के सवाल पूछूँ। अब यहाँ पर धर्म और अध्यात्म में अन्तर आ जाता है। धर्म माने जो विकृत धर्म है, हम उसकी बात कर रहे हैं, शुद्ध धर्म और अध्यात्म में कोई अंतर नहीं है। पर विकृत धर्म में और अध्यात्म में बड़ा अन्तर है। तो अब यहाँ पर धर्म और अध्यात्म में अन्तर आ जाता है। अध्यात्म यहाँ से नहीं शुरुआत करता कि मानो। जैसे तुमने कहा कि किसी को अगर चेचक हुई है तो देवी का प्रकोप है, नहीं, अध्यात्म ये नहीं कहता। अध्यात्म कहता है, ‘पूछो’, अध्यात्म कहता है, ‘पूछो।’

इसीलिए मुझे वेदांत इतना प्यारा है क्योंकि वहाँ मान्यता जैसी कोई बात ही नहीं है। वहाँ तो कहा जाता है, ‘खोद-खोद के, खोज-खोज के निकालो जो तुमने मान रखा है और जो कुछ तुमने मान रखा है, उसको ठुकराओ, उसको नकारो, ख़ारिज करो। क्योंकि मान्यता ही तुम्हारे सिर का बोझ है, मान्यता ही तुम्हारे जीवन का नर्क है। मानो नहीं, जो भी तुमने मान रखा है, बिलकुल तुरन्त कहो कि न-न-न-न, हम नहीं मानते, हम तो सवाल पूछेंगे’।

तो शुरुआत कहाँ से करनी है?शुरुआत, साहब, सवाल से करनी है, शुरुआत जो सवालिया है, जो प्रश्नकर्ता है, उससे करनी है क्योंकि उसी की हस्ती ऐसी चीज़ है जिसके बारे में तुम निश्चित होकर कह सकते हो कि है, वो तुम हो।

ठीक है न, तुम कौन? जिसको बेचैनी हो रही है सवाल पूछने की, जो जानता नहीं है। तो और कुछ हो-न-हो तुम तो हो ही क्योंकि तुम न होते तो सवाल कौन पूछ रहा होता। तो अध्यात्म यहाँ से शुरुआत करता है कि देखो, कोई तो है, जो सवाल पूछ रहा है। मैं बस एकदम विश्वास के साथ ये कह सकता हूँ कि वो है, बाकी तो जो कुछ उसको प्रतीत हो रहा है, उसका होना या न होना बिलकुल निश्चित नहीं है क्योंकि हो सकता है कि मैं शराबी होऊँ, हो सकता है कि मैं शराबी होऊँ। और अगर मैं शराबी हूँ और मुझे दिखाई दे रहा है कि आसमान में लोग नृत्य कर रहे हैं तो हो सकता है ऐसा, शराबी को कुछ भी दिख सकता है। शराबी का काम ये नहीं है कि कहे कि मुझे कुछ दिख रहा है तो ऐसा होगा न। तुम्हें तो कुछ भी दिख सकता है, उसकी क्या कीमत? लेकिन एक बात पक्की है, तुम शराबी भी हो तो भी तुम हो।

अध्यात्म यहाँ से शुरुआत करता है कि मैं हूँ, मैं हूँ। अध्यात्म यहाँ से नहीं शुरुआत करता कि मुझे क्या लग रहा है, मेरे क्या अनुभव हैं या मैं क्या मानता हूँ? तुम्हारे जो अनुभव हैं, बेकार! उनकी कोई वैधता, कोई वैलिडिटी नहीं, जैसे शराबी के अनुभव की कोई वैलीडिटी नहीं । शराबी को कोई अनुभव हो सकता है कि कोई परी आकर के उसके बालो में उँगलियाँ फेर रही है। तो, इस अनुभव की क्या कीमत? तो हमें जो कुछ भी लग रहा है, हम जो कुछ भी मानते हैं, हम जो कुछ भी कहते हैं कि ये मेरे ज़िन्दगी की सीख है, ये मेरे सिद्धान्त हैं, इत्यादि-इत्यादि, अध्यात्म कहता है, ‘हटाओ, सब एक तरफ़ रखो, हम बस एक चीज़ जानते हैं,तुम हो। अब अपने होने को लेकर के आगे बढ़ो। ये कौन है जो अपनेआप को ‘मैं’ बोलता है?’।

अब बताओ तुम, इसमें कहाँ पर कोई देवी-देवता आ गये? इसमें कहाँ बारिश और इंद्र की बात आ गयी? संजय वाल्मीकि, कहाँ इसमें चेचक और माता की बात आ गयी? कहाँ इसमें ईश्वर, अल्लाह ऐसी कोई चीज़ आ गयी? तो तुम ये फिर क्यों कह रहे हो कि जैसे-जैसे साइंस आगे बढ़ेगी वैसे ही, सर आपका अध्यात्म भी मिटता जाएगा? साइंस से तो और ज़्यादा रिगरस (कठिन) चीज़ है अध्यात्म। रिगरस समझ रहे हो? साइंस से भी ज़्यादा इसमें कठिनाई है, इसमें बिलकुल तलवार की धार पर चलना पड़ता है।

वजह बता देता हूँ, साइंस भी सवाल करती है, अध्यात्म भी सवाल करता है, लेकिन साइंस सवाल करती है बस बाहर की चीज़ों के बारे में कि ये क्या है, ये क्या है? ये, साहब, सामने मुझे ये कैमरा दिखाई दे रहा है, लोग बैठे हुए दिख रहे हैं, ये क्या है? ये दीवाल है, उसके ऊपर पेंट (रंग) है, उसका केमिकल कम्पोजीशन (रासायनिक संरचना) क्या है? साइंस ये सब सवाल करती है, बाहर की चीज़ें जो दिख रही है।

अध्यात्म और एक कदम आगे बढ़ता है, अध्यात्म कहता है, ‘जो देख रहा है इन सब चीज़ों को, वो क्या है?’ तो साइंस , विज्ञान तो बस देखी जा रही चीज़ों पर सवाल उठाता है, अध्यात्म देखी जा रही चीज़ों पर तो सवाल उठाता ही है, जो देख रहा है उसपर भी सवाल उठाता है,देखने वाला कौन है? क्योंकि जो देखने वाला है, अगर वही नकली निकला तो उसने जो कुछ देखा वो असली कैसे हो सकता है। समझ रहे हो? तो ऐसा बिलकुल नहीं है कि विज्ञान आगे बढ़ेगा तो अध्यात्म लुप्त होता जाएगा। विज्ञान को तो मैं अध्यात्म की एक शाखा मानता हूँ, एक सबसेट (भाग) मानता हूँ कि अध्यात्म अगर एक घर है, तो विज्ञान उस घर का एक कमरा है। अध्यात्म ज़्यादा गहरी और ज़्यादा अन्दरूनी बात है। और ये याद रखो अध्यात्म मानने का नाम नहीं है। प्रक्रिया अध्यात्म की और विज्ञान की एक जैसी है, दोनों सवाल करते हैं, दोनों प्रयोग करते हैं। दोनों ही विश्वास के, धारणाओं के, मान्यताओं के, बिलीफ (आस्था) के बिलकुल ख़िलाफ़ हैं।

इसीलिए अध्यात्म में और झूठे धर्म में अक्सर टकराव चलता रहता है। आप सोचते होंगे धर्म और अध्यात्म एक दूसरे के बिलकुल समानार्थक शब्द हैं।नहीं, ऐसा नहीं है। झूठे धर्म में और अध्यात्म में ज़बरदस्त संघर्ष रहता है। क्योंकि झूठा जो धर्म होता है वो हमेशा ये कहता है, ‘साहब, हम लोग तो ऐसा मानते हैं’। सुना है न लोगों को कहते हुए, ‘साहब हमारी तरफ़ तो ऐसी मान्यता है’। अध्यात्म में मान्यता बिलकुल नहीं चलती, अध्यात्म के कान खड़े हो जाते हैं ‘मान्यता शब्द’ सुनते ही। अध्यात्म को सच्चाई चाहिए, कल्पना नहीं। अध्यात्म परी कथाओं में, किस्सों में, कल्पनाओं में यकीन बिलकुल नहीं करता। इसीलिए अध्यात्म आपको सच्ची ज़िन्दगी देता है। और किस्सों पर और धारणाओं पर आधारित जो भी धर्म होगा वो आपको दुख देगा, कष्ट देगा।

जब भी आप किसी तथाकथित धार्मिक आदमी से मिलें और पाएँ कि वो आदमी आपको किसी चीज़ पर विश्वास करने के लिए बोल रहा है। कह रहा है, ‘देखो साहब, ये तो हमारा विश्वास है’ या ‘ये बात तो देखो हमारी आस्था की है’, आप तुरन्त वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो जाइए। वो आदमी ही ख़तरनाक है और धर्म का जो संस्करण वो आपके गले में ठूँस देना चाहता है, धर्म का वो संस्करण भी विकृत है, आपके लिए हानिप्रद है। बचिएगा।

अध्यात्म सच्चाई की खोज है, कल्पनाओं का जाल नहीं। जहाँ कल्पनाएँ हैं, जहाँ किस्से हैं, वहाँ सच्चाई नहीं हो सकती। ठीक है?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org