धर्म के नाम पर जानवरों की हत्या
आदमी बड़ा करामाती जीव है। कुछ रच पाने की उसकी हैसियत हो ना हो, विध्वंस की उसकी क्षमता लाजवाब है। उलझन को सुलझा वो भले ना पाता हो पर सीधी सरल बात को भी उलझा लेने में उसका कोई सानी नहीं। कोई ग्रन्थ नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है जो कहता है कि जानवर को मारोगे तो उससे तुम्हें आध्यात्मिक तल का कोई लाभ हो जाना है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि पशु बलि से किसी भी तरह का कोई लाभ हो सकता है। कहीं-कहीं पर बात की गई है अजमेध, अश्वमेध इत्यादि की। वो बात जिस सन्दर्भ में है, उसको समझना आवश्यक है। अध्यात्म का पूरा क्षेत्र ही जानवर को इन्सान बनाने की कोशिश है। शरीर से तो हम पशु ही हैं, वृत्तियों से भी हम पशु ही हैं।
जब बात की जाती है पशु बलि की तो वास्तव में कहा जाता है कि अपनी पशुता को मारो। किसी पशु को मारने की बात नहीं हो रही है। अपने भीतर की पशुता को मारने की बात हो रही है। अच्छे से समझ लो कि तुम बलि क्यों देते हो? इसलिए नहीं की उससे कोई धार्मिक लाभ हो जाएगा, इसलिए क्योंकि ये जो ज़रा सी जबान है ना! ये लपलपाती रहती है स्वाद के लिए। कुछ ना कुछ कह करके इसको माँस-मसाला चाहिए। और कोई बहाना नहीं मिला तो धर्म का बहाना ही सही। यही सब देख-देख करके एक बुद्ध का, एक महावीर का जी ऐसा उचटा था कि उन्हें एक अलग मार्ग ही पकड़ना पढ़ा। बहुत बड़ा कारण जिसकी वजह से जैन और बौद्ध पंथों की स्थापना करनी पड़ी, वो यही था। पशु बलि से धर्म का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है, बल्कि पशु बलि धर्म के बिल्कुल विपरीत है। चाहे वो कोई भी धर्म हो।