धर्म का क्या अर्थ?

धर्म का मतलब होता है वह धारणा रखना, जो तुम्हें समस्त धारणाओं से मुक्ति दे दे। तुमने अपने ऊपर यह जितने भी नाम रखे हैं जितने भी किरदार रखे हैं। कहा न अभी- माँ हूँ, बहन हूँ, पत्नी हूँ। यह धारणाएं हैं। जब तुम सो जाते हो तो क्या तुम किसी की माँ या किसी की पत्नी रहते हो? जब तुम चेतना के ही जागृत अवस्था में आ जाते हो, सिर्फ़ तभी यह ख्याल और स्मृति आते हैं न कि तुम किन्हीं विशेष किरदारों में हो? तो यह धारणाएं हैं, सत्य तो नहीं है। सत्य तो नींद के साथ नहीं मिट जाता, नित्य होता है न? पर नींद के साथ तो बीवी भी मिट जाती है और माँ भी मिट जाती है। मिट जाती है न? और अगर मूर्छित हो गई तब क्या कहना? एकदम ही नहीं बचती। फिर तो नाम भी पुकारो उसका, तो नाम भी मिट जाता है। तो यह सब क्या हैं किरदार? धारणाएं हैं। पर यह छोटी मोटी धारणाएँ हैं। धर्म का मतलब होता है- एक आखरी धारणा रखना और ऐसी धारणा जो बाकी सब धारणाओं से मुक्ति दिला दे। तुम्हारी क्या है आखरी धारणा? ये पता करो। जो आखरी है वास्तव में वह पहली है, जहां से शुरुआत हुई है।

तुमने अपने आप को क्या माना कि तुम्हारे इस जीवन यात्रा की शुरुआत हुई है? तुम्हारे इस किस्से का पहला अक्षर क्या है? तुम्हारी वर्णमाला शुरू कहाँ से हो रही है? बुल्ले शाह कहते थे “इक अलिफ़ पढ़ो, छुटकारा है।” धर्म का मतलब है अपने अलिफ़ को याद रखना। अपने ‘अ’ को याद रखना। जैसे प्रणव में होता है न? अकार, उकार, मकार। तो ‘अ’ कार को याद रखना, पहले को याद रखना। कहाँ से शुरू हुए थे तुम? नानी, दादी, बहन, पत्नी तो बाद में बने थे तुम, सबसे पहले क्या थे तुम? सबसे पहले थी मूलवृत्ति- ‘मैं’, वो प्रथम धारणा है। वह प्रथम धारणा है जिसके कारण फ़िर न जाने तुम्हें कितनी और धारणाएं पकड़नी पड़ी और हर धारणा झूठी है। पहला झूठ क्या है तुम्हारा? ‘मैं’ एक बार कह दिया मैं, तो फ़िर हज़ार झूठ और बोलने पड़ते हैं। फिर बहन भाभी सब बनना पड़ता है। एक बार कहा नहीं ‘मैं’ के बीच डल गया। अब न जाने कितनी हजार पत्तियाँ निकलेंगी?

तो धर्म का मतलब है अपनी इस प्रथम धारणा को फिर से याद करना और याद करना कि यही तुम्हारी प्रथम भूल थी और यही तुम्हारी प्रथम अशांति है, यही तुम्हारी प्रथम पहचान है इसी का तुम्हें निराकरण चाहिए।

तुम अपनी बाकी सब पहचानो से जुड़े हुए दायित्वों की पूर्ति करते रह जाते हो न? अगर बहन हो तो बहन होने के दायित्वों की पूर्ति करते हो, बेटी हो तो बेटी होने के, कहीं पर तुम अगर कर्मचारी हो तो कर्मचारी होने के दायित्वों की पूर्ति करते, तुम किसी सभा इत्यादि के सदस्य हो तो वहाँ के भी दायित्वों की पूर्ति करते हो। करते हो न? तुम अपने किरदार के हर रंग से संबंधित दायित्वों की पूर्ति करते हो न? लेकिन तुम भूल ही जाते हो कि किरदारों के नीचे का किरदार क्या है? तुम भूल ही जाते हो कि वर्णमाला के…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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