धर्मग्रन्थ- समयसापेक्ष और समयातीत!

आचार्य प्रशांत: जब भी कोई बात कही जाती है, तो कही तो मन से ही जा रही है। हमें दो बातों में अंतर करना सीखना होगा। जो बात कही गई है, उसके शब्द और उसके सार दोनों को जिसने आपस में मिश्रित कर दिया, वो कुछ समझेगा नहीं। अब बुद्ध ने जो बातें कही हैं उनमें से कुछ वो सब नियम हैं जो उन्होंने भिक्षुकों के लिए, भिक्षुणियों के लिए बनाए थे। और वो बड़े आचरण किस्म के, मर्यादा किस्म के नियम हैं कि ये करना, ये खाना, इससे मिलना, ऐसे बैठना। इसको आप बुद्ध की बातों का सार नहीं कह सकते। हमें ये अंतर करना आना चाहिए।

जैसे हमारा एक पदार्थ के तल पर होना है और एक आत्मा के तल पर होना है, वैसे ही बातों का भी एक रूप होता है। वचनों की भी एक देह होती है और एक आत्मा होती है। आप की समझ इसमें है कि आप सीधे आत्मा तक पहुँचें। मैं नहीं कह रहा हूँ कि देह को ठुकरा दें, पर देह देह है और आत्मा आत्मा है। इतना अंतर करना आपको आना चाहिए।

देह जैसा कि नाम से स्पष्ट है, समय के साथ उठती है और बदलती है। आत्मा नहीं बदलती। तो धर्मग्रंथों में जो बातें कही गईं हैं, उसमें से कई बातें ऐसी होती हैं जो देह जैसी ही हैं, जो समय पर निर्भर हैं। जो एक समय पर उपयोगी थीं, सार्थक थीं और समय बदलने के साथ उनकी सार्थकता ख़त्म हो जाती है। हर धर्मग्रंथ में ऐसी बातें हैं। हमें ये अंतर करना आना चाहिए।

सिर्फ इसलिए कि कृष्ण कुछ कह रहे हैं तो सब कुछ जो गीता में लिखा है वो एक बराबर नहीं हो गया। उसमें काफ़ी कुछ ऐसा है जो सिर्फ अर्जुन के लिए उपयोगी है, आपके लिए नहीं। सिर्फ इसलिए कि बुद्ध कुछ कह रहे हैं, तो सब कुछ आपके लिए सार्थक नहीं हो गया। बात समझ रहे हो? जैसे हमारी देह है और देह के भीतर, देह से अलग, देह से ज़्यादा आधारभूत कुछ है, उसी तरीके से धर्मग्रंथों में भी ऐसा ही होता है।

जो हल्का आदमी होता है, वो हल्की बातों को पकड़ लेता है और जो मूल बातें हैं उनको छोड़ देता है। उसको समझ में ही नहीं आता कि इसमें आत्मा क्या है और देह क्या है। और हर धर्मग्रंथ में कुछ बातें हैं ऐसी जो सिर्फ सामयिक थीं, उसी समय के लिए, उन लोगों के लिए जिनसे कही गई हैं। फिर लड़ाईयाँ होती हैं, खूब झगड़े और ज़बरदस्ती के संघर्ष कि ये बात क्यों लिखी हैं और क्या हैं।

क्यों लिखी हैं इस पर लड़ क्यों रहे हो? क्या हो गया अगर लिखी हैं तो? लोग थे, उनका वक़्त था, कहीं कुछ बातें। तो? और मैं कह रहा हूँ कोई संत ऐसा नहीं है, कोई अवतार, कोई पैगम्बर ऐसा नहीं है जिसकी बातों में तुम्हें कुछ-न-कुछ विवादास्पद न मिल जाए, मिलेगा-ही-मिलेगा। हर आदमी अपने समय के मुताबिक बात करता है न? तो उसमें से कुछ बातें इस समय में अगर नहीं जँच रही हैं, नहीं उपयोगी लग रही हैं तो शोर क्यों मचा रहे हो? कोई बड़ी बात नहीं हो गई। ठीक है?

तुम ये देखो न कि आत्मा क्या है, सत्व क्या है, मूल क्या है, और वो समयातीत होता है, समय उसको ख़राब नहीं कर सकता। उसके साथ जुड़ो। आज ये जो मूलपाठ लिया है, इसका नाम क्या है? दी कोर कुरान। वो जो कि आज भी सत्य है, कल भी रहेगा और सदा रहेगा।

जिसको नानक ने कहा है, “आदि सचु, जुगादि सचु, है भी सचु, नानक होसी भी सचु।” उसके साथ जुड़ो। वो जो समय पर आधारित नहीं है कि आज तो सच है और कल उसका नया संस्करण आ जाएगा। उसके साथ जुड़ने से कोई लाभ नहीं है। वहाँ तुम फ़ालतू अपना समय ख़राब करोगे। और इस बात में कोई शर्म नहीं है, इसमें कोई अपमान नहीं हो गया कि कुछ बातें सिर्फ उस समय के लिए थीं। मान लो कि ऐसा ही है। ठीक है? ऐसा होना भी चाहिए कि कुछ बातें ऐसी बोली जाएँ जो सिर्फ उन लोगों के लिए हैं, उन मन के लिए हैं जो मन उस समय उपस्थित हैं। सिर्फ उस मनोदशा के लिए हैं जो मनोदशा तब है। ठीक है, बढ़िया है।

अब ये जो अट्ठारवीं आयत है, देखो इसको। इसको अगर ऊपर-ऊपर से देखोगे तो ऐसा लगेगा कि ये बड़ी हिंसक और क्रूर किस्म की बात की जा रही है। इसको अगर सिर्फ देह से देखोगे तो ऐसा ही लगेगा। पर अगर इसकी आत्मा में जाओ तो इतना ही कहा जा रहा है कि ‘सत्य के अस्वीकारक’ जो हैं उनको सज़ा मिलती है। बस इतना ही कहा जा रहा है। इससे ज़्यादा इसमें पढ़ने की कोशिश मत करना।

मात्र इतनी सी बात कही गई है कि जो सत्य से विमुख होगा, वो कष्ट पाएगा। ठीक है? जो सत्य से विमुख होगा वो कष्ट पाएगा। बस बात इतनी सी है और कुछ भी नहीं है। और उसी को पलट कर कह सकते हो कि जो कष्ट पा रहा है, निश्चित सी बात है कि वो सत्य से विमुख हुआ होगा। ठीक है?

प्रश्नकर्ता: सर, इस अध्याय का नाम वीमेन (औरत) क्यों लिखा हुआ है?

आचार्य: अरे ये सिर्फ़ औरतों के लिए नहीं है। अध्याय का नाम है ‘वीमेन * ’। अलग-अलग शुरा होते हैं। वो प्रासंगिक होते हैं कि मुद्दा क्या चल रहा था, उस समय क्या घटनाएँ घट रही थीं जब ये आयतें उतरीं। उनके आधार पर नाम होते हैं। इनका औरतों से कोई लेना देना नहीं है कि तुम सोचो कि ये सारी सज़ाएँ औरतों के लिए आरक्षित हैं, कि हम बच गए। अब ये देखना पड़ेगा कि वास्तव में इसका नाम, इस अध्याय का नाम औरत * (वीमेन) क्यों है।

प्र: इस अध्याय का केंद्र-बिंदु औरतें होंगी।

आचार्य: हाँ। केंद्र-बिंदु भी इसलिए होंगीं, मैं मुद्दा याद करने की कोशिश कर रहा हूँ कि क्या था। मेरे ख्याल से हुआ ये था कि अरब में उस समय जो कबीले थे, जिसमें जो कुरैश कबीला है, वो भी शामिल था। उनमें औरतों की बड़ी बद्तर हालत थी। मोहम्मद अध्यात्मिक गुरु तो थे ही समाज सुधारक भी थे। तो यह तो सब जानते हो न कि उनको शहर छोड़ कर भागना पड़ा था, दूसरी जगह शरण लेनी पड़ी थी। फिर एक के बाद एक उनकी लड़ाईयाँ हुईं, कुछ जीती भीं। फिर वापस आ कर वो मक्का पहुँचे।

उन्होंने अपनी एक नई बस्ती बसाई, जहाँ पर उन्होंने कुछ बदलाव किए थे नियमों में, जिनमें से सबसे बड़ा बदलाव था कि पिता के मरने पर संपत्ति का एक हिस्सा बेटी को भी मिलेगा। वरना कबीलों में बेटी को कुछ नहीं दिया जाता था। और जब मोहम्मद ने ये नियम लागू किया था तो उनके अपने ही लोग उनके खिलाफ़ खड़े हो गए थे। जो नए-नए मुस्लमान थे, वो ही मोहम्मद के खिलाफ़ खड़े हो गए थे। मैं सौ प्रतिशत पक्का नहीं हूँ पर जहाँ तक याद पड़ता है प्रसंग इसका यही है। तो उस समय पर फिर मार्ग दर्शन के लिए जब मोहम्मद ने प्रार्थना की होगी कि अब क्या करूँ, तब जो आयतें उतरी होंगी शायद वो इस अध्याय में हैं। पर सत्यापित कर लेना एक बार।

देखो हम ये बातें बोलते हैं न, आज स्त्री-अधिकारवादी जो कहते हैं कि इस्लाम में चार शादियों की अनुमति क्यों है, वो ये भूल जाते हैं कि हर बात का प्रसंग होता है। उस समय को देखना पड़ेगा। जब मोहम्मद थे उस समय चार नहीं, चालीस शादियाँ चलती थीं। और जैसे भेड़-बकरी पर कब्ज़ा किया जाता है, वैसे ही जब एक कबीला दूसरे पर जीत हासिल कर लेता था तो उसकी औरतों को उठा ले जाता था। तो उनको रोकने के लिए ये नियम बनाया गया था। ये नहीं कहा गया था कि चार तक कर सकते हो। नियम ये था कि चार से ज़्यादा नहीं कर सकते। दोनों की भावना में बहुत अंतर है।

एक भावना ये है कि चार कर सकते हो। और दूसरी भावना ये है कि ख़बरदार अगर चार से ज़्यादा कीं क्योंकि लोग वहाँ ऐसे थे जो चालीस करने को तत्पर रहते थे। कर लो, और बीवी को कोई अधिकार नहीं थे। कबीलों के नियम-कानून थे, पर उसमें कोई अधिकार नहीं थे। पति की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं। जितने भी एक आदमी के आम हक़ हो सकते हैं, वो नहीं थे उनके पास। तो वो ये सब नियम लेकर आए, कहा कि औरतों को भी मिलना चाहिए ये सब हक़, तो ये प्रसंग था।

बिना उस प्रसंग को जाने अगर देखोगे तो ऐसा लगेगा कि ये सब क्या है, गलत है। क्यों है? लेकिन ये बात भी सही है कि वो प्रसंग अब आज नहीं है। तो आज अगर कोई ये बोले कि, “मुझे चार शादियाँ करनी हैं क्योंकि मान्य हैं”, तो ये आदमी गड़बड़ है।

एक फ़िल्म आई थी, ‘गैंग्स ऑफ़ वस्सेपुर’। उसमें एक किरदार था सरदार खान। उसकी शादी हो चुकी है, बच्चा भी है। फिर एक दूसरी औरत उसको मिलती है। एक दृश्य है जिसमें वो बर्तन धो रही है और ये देख रहा है। याद है? पूरी तरह से स्पष्ट है कि शारीरिक आकर्षण है। तो ये साहब कहते हैं कि अब दूसरी शादी करनी चाहिए। अगला दृश्य है जिसमें वो एक रेलवे ट्रैक के बगल से चला आ रहा है और कोई उससे पूछ रहा है कि, “तुझे दूसरी शादी क्यों करनी है?” तो वो बोलता है कि, “ये हम अपना धार्मिक कर्तव्य निभा रहे हैं। इस्लाम में कहा गया है कि चार शादी करो और अभी तक हम एक पर ही बैठे थे।” तो फिर आज अगर चार कर रहे हो तो उसका कोई औचित्य नहीं हो सकता। और फिर वही है कि मन नहीं भर रहा है। एक के काबिल हो नहीं और चार चाहिए।

इसको पढ़िए, अब इसकी आखिरी पंक्ति पर आ रहे हैं। इसमें दिक्कत ये आ रही होगी कि ये क्यों लिखा है? “मैंने तुम्हें वो इनायत दी है जो मैंने किसी और को नहीं दी है।”

(पास ही जाती हुई एक बिल्ली की ओर इंगित करते हुए) देखो वो जो बिल्ली है, वो खड़ी दीवार पर ऐसे-ऐसे चढ़ गई। तुम चढ़ सकती हो? यही वो कह रहे हैं। उसने जो तुम्हें दिया है, वो किसी और को नहीं दिया है। तुम चश्मा लगाती हो, वो नहीं लगाती। पर वो खड़ी दीवार पर चढ़ जाती है, तुम नहीं चढ़ सकतीं। यही बात है बस, और कुछ भी नहीं है।

जो तुम्हें दिया है वो किसी और को नहीं दिया, और जो किसी और को दिया है, वो तुम्हें नहीं दिया है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org