धर्मग्रंथों की उपेक्षा धर्म को मिटाने की तैयारी है

प्रश्नकर्ता: आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रंथों को लेकर वर्तमान समय में एक उपेक्षा का भाव है बल्कि कहीं-कहीं तो घृणा का। लोग कहने लग गए हैं ज्ञान तो हम अपने अनुभव से ही ले लेंगे। समझ तो हम अपने जीवन से यही सींख लेंगे। किसी ग्रंथ किसी शास्त्र की हमें कोई ज़रूरत नहीं है। बल्कि कई लोगों ने तो ज़ोर देकर बोलना शुरू कर दिया है कि किसी भी तरह की आध्यात्मिक पुस्तक पढ़ना आंतरिक प्रगति में बाधा ही बन जाती है।

आचार्य प्रशांत: देखिए वजह साफ हम जैसे जी रहे हैं वैसे जी नहीं पाएंगे अगर हम चले गए उपनिषदों और गीताओं के पास। साथ ही साथ हम में इतना दम नहीं है कि हम कह सके हम पाशविक हैं और हमें पशु जैसा ही भौतिक जीवन जीना है। इरादे भले ही हमारे यही है कि हमें पशु जैसा ही बस पार्थिव जीवन जीना है लेकिन यह बात हम खुलकर नहीं कह सकते। हमें यह भी खुद को और दुनिया को जताना है कि देखो साहब हमारी जिंदगी में भी कुछ ज़रा ऊपरी तल का है, हम भी आध्यात्मिक हैं। हमें यह भ्रम भी कायम रखना है साथ भी साथ हमें अपने ढर्रे भी कायम रखने हैं।

आज के समाज की आप स्थिति समझ रहे हैं? काल का कुछ ऐसा दुर्योग बैठा है, समय ने कुछ ऐसी करवट ली है, एक ऐसे मुकाम पर पहुँच गया है, जहाँ ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई दंड नहीं मिलेगा, कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा अगर आप पूरे तरीके से एक सत्यहीन, मुक्तिहीन, भोग केंद्रित और सुख केंद्रित जीवन बिता रहे होंगे। तो हर आदमी की प्रकट या अप्रकट कामना यही है कि वो भोगे। वही कामना जो जानवर की भी होती है बस जानवर से कई गुना ज़्यादा परिमाण में। जानवर थोड़ा ही भोगना चाहता है भोगने के अलावा उसके जीवन का कोई लक्ष्य आदि नहीं होता।

आदमी जानवर से हज़ारों-अरबों गुना ज़्यादा भोगना चाहता है लेकिन कर वही रहा है जो जानवर करता है, आयाम वही है। आज के आदमी की बात कर रहा हूँ। जानवर को भी सुख चाहिए और आज का भी जो पूरा जीवन है, जो हमारी पूरी व्यवस्था है, संस्कृति और सभ्यता है, वो सिर्फ और सिर्फ सुख और भोग केंद्रित है। सबकुछ इस तरीके से बनाओ चाहे वो कानून हो, चाहे शिक्षा हो, चाहे अर्थव्यवस्था हो, चाहे सामाजिक व्यवस्था हो कि आदमी के सुख में बढ़ोत्तरी हो और आदमी को ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ें भोगने को मिलें। नये-नये अनुभव भोगने को मिले। ये वर्तमान समय है। और साथ ही साथ हममें इतनी दिलेरी नहीं है कि हम कह सके कि हाँ साहब हम जानवर के ही आयाम पर आ चुके हैं वैसा ही हमको जीना है तो जरा अपनी नैतिक छवि बनाए रखने के लिए, ज़रा अपनी ही आँखों में ऊँचा बने रहने के लिए हम ये भी कहते हैं कि “हम आध्यात्मिक हैं।”

लेकिन असली अध्यात्म हमारे लिए खतरनाक है क्योंकि असली अध्यात्म हमें वैसे जीने नहीं देगा जानवर की तरह जैसे हम जी रहे हैं और यह कह पाने की…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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