दो पल का उत्साह नहीं, लंबी पारी चाहिए

इसलिए मैं तो सलाह दिया करता हूँ कि बहुत उत्सुकता ही ना दिखाई जाए। जो एकदम गंभीर लोग हों, उनकी बात अलग है — और हो सकता है कि तुम गंभीर हो, उस बात का मैं सम्मान करता हूँ। लेकिन ज़्यादातर लोग ताँक-झाँक इत्यादि में ही रुचि रखते हैं। उनके लिए ये भी एक यूँ ही गॉसिप (गपशप) का मसला होता है, “कैसे रहते हो, क्या चलता है भीतर?”

विचार से जो ऊर्जा उठती है वो अकस्मात् होती है और इसीलिए क्षणिक होती है। बोध से जो ऊर्जा उठती है उसमें सातत्य होता है, कॉन्स्टेंसी (निरंतरता)। उसमें ऐसा नहीं होगा कि आप एक फ़िल्मी नज़ारा खड़ा करके कहेंगे कि, “ये कर दूँगा वो कर दूँगा, ऐसा है वैसा है, जल्दी से पलट दूँगा, छक्का मार दूँगा।” छक्का मारना आलसी लोगों का काम होता है। वो ये कर ही नहीं सकते कि गेंद पर गेंद खेलते जाएँ और दौड़-दौड़कर रन बटोरते जाएँ, तो वो खड़े हो जाते हैं और बल्ला घुमाना शुरू कर देते हैं कि, “छक्का मार दूँगा!”

(कुछ समय पहले चल रहे क्रिकेट खेल के उपलक्ष में बोलते हुए) आज दो विकेट जल्दी गिर गए। अच्छा चल रहा था सब, सत्तर के आसपास दोनों विकेट गिर गए। उसके बाद प्रति ओवर एक रन से भी कम की दर पर रन बनाए हैं रहाणे और पुजारा ने।

अध्यात्म कुछ-कुछ ऐसा ही है। खड़े रहना पड़ता है। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि छक्का मार दिया कि नहीं, महत्वपूर्ण ये है कि तुम्हारा स्टंप नहीं उखड़ना चाहिए — और स्टंप उखड़वाने का एक तरीका ये भी होता है कि छक्का मारो। (हँसते हैं) नहीं भी उखड़ रहा होगा तो उखड़ जाएगा।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org