दोस्त वो जो तुम्हें तुम तक वापस लाए

हम एक दुनिया में रहते हैं, जहां हमें चारों ओर दूसरे ही दूसरे दिखाई देते हैं। इन दूसरों में, कैसे जानूँ कि मेरे लिए हितकर कौन है। और जो ही हितकर है, उसी का नाम दोस्त हो गया। दोस्त कौन है? ये समझने के लिए पहले मुझे ये देखना पड़ेगा कि मेरा हित किसमें है? फिर जो मुझे मेरे हित की तरफ ले जाए, वही दोस्त हुआ।

तुम्हारा हित किसमें है, और तुम्हें प्रिय क्या है — ये दोनों बहुत अलग-अलग बातें हैं। तुम कभी अपना हित नहीं देखते हो। तुम हमेशा ये देखते हो कि तुम्हें प्रिय क्या है; और जो तुम्हें प्रिय है उसने तुम्हें इतना जकड़ रखा है कि जब मैं कहता हूं कि अपना हित देखो, तो भी तुरंत तुम्हें सुनाई ये दिया कि जो तुम्हें प्रिय लगे, वो तुम्हारा दोस्त है। मैंने ये तो नहीं कहा था। हित अपना जानते हो क्या? हम अपना हित जानते ही नहीं, इसी कारण हम ये जानते ही नहीं कि हमारा दोस्त कौन हुआ। हम ये तो अच्छे से जानते हैं कि हमें प्रिय क्या लगता है, हमारा मन उत्तेजित किन बातों पर होता है, हमें मनोरंजन कैसे मिलता है- ये सब तो हम जानते हैं। पर हम ये बिल्कुल भी नहीं जानते कि हमारा हित कहां पर है। फंस गए ना?

यदि तुम ये जान गए कि तुम्हारा हित कहां है, तो फिर तुम ये भी तुरंत समझ जाओगे कि तुम्हारा दोस्त कौन हुआ। एक क्षण की देरी नहीं लगेगी। आज अगर हम दोस्तों के नाम पर दुश्मनों से घिरे हुए हैं, तो उसका कारण यही है कि हमें ही नहीं पता कि हमारा हित कहां है। और हमें ये नहीं पता कि हमारा हित कहां है क्योंकि हम यही नहीं जानते कि हम कौन हैं? जिसे अपना नहीं पता, उसे दोस्तों का क्या पता होगा? कहां है तुम्हारा हित?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org