देखो संगति का असर

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। कुछ चीज़ें हमें साफ़-साफ़ पता चलती हैं कि हम ग़लत कर रहे हैं। लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जो व्यर्थ होती हैं लेकिन जब हम उस काम में मशगूल रहते हैं तो पता नहीं चलता कि व्यर्थ है, जैसे हम हँसी-मज़ाक और गपशप करते रहते हैं। तो हमें बाद में पता चलता है कि समय गँवा दिया या कुछ ऐसे काम में लगे रहे जो मानसिक और आध्यात्मिक रूप से हमें कमज़ोर करती है।

तो इन चीज़ों को उसी समय कैसे जानें कि व्यर्थ हैं?

ये बातें जो साधारण लगती हैं, लगता है कि इनमें कोई नुक़सान तो है नहीं, ये बातें हमें नुक़सानदेह कम इसीलिए लगती हैं क्योंकि हम नुक़सान को भी बड़े स्थूल, ग्रोस तरीक़े से नापते हैं। उदाहरण के लिए किसी से हँसी-मज़ाक कर रहे हों और हँसी-मज़ाक करके उठे और पाया कि जेब से एक दो हज़ार का नोट गायब है। तो तत्काल क्या बोल दोगे? कि "हँसा-हँसा कर बेवकूफ़ बना गया।"

ठीक?

अब गुस्सा भी आएगा, चिढ़ोगे भी, ग्लानि उठेगी, अगली बार के लिए क़सम खाओगे "इस आदमी से कोई हँसी-मज़ाक नहीं करनी।" क्यों होगा ये सब? क्योंकि तुम्हें अब एक ग्रोस प्रूफ़, एक टेंजिबल प्रूफ, एक स्थूल प्रमाण मिल गया है कि तुम्हारा नुक़सान हो गया। नुक़सान उतना ही बड़ा भीतर भी होता है लेकिन हम उसको मूल्य नहीं देते, वैल्यू नहीं देते।

तो सवाल फिर नुकसान का नहीं है, सवाल वैल्यूएशन (मूल्याँकन) का है। नुक़सान तो हो ही रहा है, लेकिन हम मूल्य उसी नुक़सान को देते हैं जो स्थूल हो, टेंजिबल हो। जो आंतरिक नुकसान है, मानसिक, स्पिरिचुअल कह लो, साइकोलॉजिकल (मनोवैज्ञानिक), जो भी कहना चाहो, उसको हम मूल्य ही नहीं देते।

क्यों? अब इसमें जाओगे तो फँसोगे। क्योंकि हम ख़ुद अपनी हस्ती के जो स्थूल रूप हैं, जो ग्रोस एस्पेक्ट्स हैं…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org