दूसरों पर निर्भर गृहस्थ महिला कैसे बढ़े मुक्ति की ओर?
दो वर्ग के लोगों के लिए बड़ी समस्या है: एक वो जो बेरोज़गार हैं, और दूसरी, माफ करिएगा, गृहणियाँ — ख़ासतौर पर जो आश्रित गृहणियाँ हैं, जो कुछ कमाती-धमाती नहीं। इनको सबसे बड़ी सज़ा और बड़ी दुःखदायी सज़ा ये मिलती है कि इनका अध्यात्म की तरफ बढ़ने का रास्ता बिल्कुल रोक दिया जाता है।
कोई और कारण हो नहीं सकता कि आपको पूछना पड़े कि — “गृहस्थ में रहते हुए भी अध्यात्म की ओर कैसे बढूं? गृहस्थी की बातों को अनदेखा कैसे करूँ?” निश्चितरूप से अध्यात्म की ओर बढ़ने की इच्छा के सामने, गृहस्थी की मजबूरियाँ सामने आ रही हैं। आपकी भाषा में वो ‘मजबूरियाँ’ कहलाती हैं, मेरी भाषा में ‘स्वार्थ’। आदमी मजबूर हो कैसे सकता है जब तक उसका स्वार्थ ना हो? बताइए मुझे। आप तो कह देते हो — “नहीं! नहीं! नहीं! मुझ पर कोई अंकुश नहीं लगा रहा”। ये बड़ा आम जुमला होता है। जैसे ही मैं कहूँगा कि आपको मजबूर किया जा रहा है अध्यात्म की ओर ना आने के लिए तो मुझसे कहा जाएगा — “नहीं, मजबूर कोई कुछ नहीं कर रहा, वो तो हम अपनी ही ज़िम्मेदारी मानकर नहीं करते। हम से किसी ने कहा थोड़े ही है”। साहब, आप से कोई शब्दों में नहीं कहेगा, वो माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि आपको खुद हो लगने लगता है कि — “मेरी पहली ज़िम्मेदारी तो कढ़ाई और करछुल की है”। कोई मुँह से थोड़े ही कहेगा। ये बात ही भद्दी और अनैतिक लगती है अगर मुँह से और शब्दों में बयान की जाए, कि — “देखो, तुम कढ़ाई-करछुल करो, कान्हा को भूल जाओ”। कोई नहीं आएगा मुँह से ये बात बोलने। वो माहौल ऐसा बना दिया जाता है, हवा, फ़िज़ा ऐसी बना दी जाती है कि आप समझ जाते हैं कि भाई ज़िम्मेदारी का नाम…