दूसरों को जान पाने का तरीका

स्वयं को जाने बिना दूसरे को नहीं जाना जा सकता। जो दूसरे को जान रहा है, वो आत्मज्ञानी ही होगा।

दूसरे को जान पाने, देख पाने, समझ पाने में हमसे इसीलिए भूल हो जाती है क्योंकि हमें ख़ुद का ही कुछ पता नहीं। दूसरे को देख पाने की यदि हममें योग्यता होती, तो हमने उसी योग्यता का उपयोग करके पहले ख़ुद को ही न देख लिया होता।

हमारी हालत ऐसी है कि हम कहें, “अपनी घड़ी में मुझे समय नहीं दिख रहा, आखें ख़राब हैं। ज़रा अपनी कलाई इधर देना। तुम्हारी घड़ी में समय देखूँगा।” उसकी कलाई में समय देख सकते, तो पहले अपनी घड़ी में न देख लिया होता? पर हमारी बड़ी रुचि रहती है दूसरे की सच्चाई जानने में।

मूलतः हम सब एक हैं। तो दूसरे को जानना है तो ख़ुद को जान लो — अपने क्रोध को, अपने सुख को, दुःख को, आशा को, निराशा को अगर तुम जान पाए, तो दूसरे को जानना मुश्किल नहीं। वो भी बिलकुल तुम्हारे ही जैसा है। ऊपर-ऊपर कुछ बातें अलग होती हैं — शरीर अलग होते हैं, अनुभव अलग होते हैं। नाम अलग होते हैं, रंग अलग होते हैं। उम्र अलग होती है, वर्ण अलग होते हैं।

ये सब ऊपरी अंतर है। जितना गहरे जाते जाओगे, उतना पाओगे कि भेद कम होते जा रहे हैं, और साझापन गहरा होता जा रहा है और अगर एकदम ही गहरे उतर गए, तो पूर्ण अभेद है वहाँ।

किसी के घर में कुछ नहीं चल रहा जो किसी और के घर की घटनाओं से भिन्न हो।

किसी की पीड़ा दूसरे की पीड़ा से भिन्न नहीं है।

मनुष्य तो मनुष्य, पशुओं की भी पीड़ा वही है जो ऊँचे-से-ऊँचे मनुष्य की है।

जब ये तुम समझते हो, तो इसे बोध कहते हैं।

इसी का फल करुणा है, इसी का फल अहिंसा है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org