दूसरों की मदद करने की ज़रूरत क्या है?

ऐसी आध्यात्मिकता जिसमें सामाजिक चेतना सम्मिलित न हो, एक धोखा है, हिंसा है।

बहुत लोग घूम रहे हैं जो कहते हैं कि — “हम आध्यात्मिक हैं, हमें दुनिया से क्या लेना-देना। दुनिया में आग लगती हो तो लगे।” इनका अध्यात्म पूरी तरह झूठा है। आध्यात्मिक उन्नति होगी तो तुम में करुणा उठेगी ही उठेगी। ये कौन-सा बोध है जिसके साथ करुणा नहीं सन्निहित? ये कौन-सा अध्यात्म है जो कहता है कि — “अपना शरीर चमका लो, तमाम तरह की योगिक क्रियाएँ कर लो, हमें दुनिया से कोई मतलब नहीं”?

संतों ने दुनिया के लिए जान दे दी। तुम्हारा कौन-सा अध्यात्म है जो बता रहा है कि — “अरे, क्या करना है? दुनिया तो वैसे भी फानी है, आनी-जानी है। अपनी मुक्ति का इंतज़ाम कर लो बस।” तुम जाकर ये बात जीसस को बताओ, महावीर को बताओ, बुद्ध को बताओ।

ये सब जो तुम पढ़ रहे हो, ये बताने वालों ने तुम्हें क्यों बताया? उन्हें क्या मिल रहा है? वो भी अपनी ही मुक्ति की परवाह कर लेते। वो कहते, “हमें तो पता है न। और हमारा काम तो हो गया। अब हम और किसी के लिए विरासत छोड़कर क्यों जाएँ?” पर इस रूखे अध्यात्म का भी आजकल बड़ा प्रचलन हो रहा है — “अपना ध्यान करो। अपना मैडिटेशन करो बैठकर के। अपनी क्रियाएँ करो।”

अध्यात्म माने — सेवा।

जहाँ सेवा नहीं है, जहाँ सर्विस नहीं है, जहाँ एक समाज का हित चाहने वाली चेतना नहीं है, वहाँ कैसा अध्यात्म?

दुनिया में जितने भी कुकृत्य हैं, पाप हैं, अध्यात्म सीधे उनकी जड़ काट देता है। और जो भांति -भांति के सामाजिक आन्दोलन होते हैं, वो सिर्फ़ पत्ते नोचते हैं, टहनियाँ तोड़ते हैं। सामाजिक आन्दोलन इसीलिए कभी विशेष सफल नहीं हो सकते।

अध्यात्म से आमूल चूल बदलाव आता है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org