दूसरों की गलती कितनी बर्दाश्त करें?
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प्रश्न: जब कभी-कभी मुझे लगता है कि कोई गलत कर रहा है या बोल रहा है, तो मैं उन्हें रोक नहीं पाती। ऐसा लगता है कि बोलूँगी तो उन्हें बुरा लगेगा, या उनको तक़लीफ़ होगी। उनकी बात पर बस हँस कर चली आती हूँ। क्या ऐसा करना ठीक है?
आचार्य प्रशांत : न ठीक है, न गलत है। ये तुम वही कर रही हो, जो तुम अपने साथ चाहती हो होना।
तुम्हें नहीं पसंद है कि तुम कुछ कर रहे हो तो तुम्हें टोका जाए, तुम्हें नहीं पसंद है कि तुम्हारी कोई खोट निकाले। क्योंकि तुम्हें नहीं पसंद है कि तुम्हारी खोट निकाली जाए, तो तुम्हें डर लगता है कि जब तुम दूसरों की खोट निकालोगे, तो उन्हें बुरा लगेगा।
जिस चीज़ को तुम अपने में मूल्य देते हो, उसी चीज़ को तुम दूसरे में मूल्य दोगे।
जिसको अपनी ठसक प्यारी होगी कि — “कोई हममें दोष न निकाले”, उसको ही डर भी लगेगा कि हमने दूसरों में दोष निकाला तो उन्हें बुरा लग जाएगा।
तुम्हें लगता है कि दूसरों को बुरा लग जाएगा अगर तुमने दोष निकाला, क्योंकि तुम्हें बुरा लग जाता है जब तुममें कोई दोष निकाला जाता है।
तुम ऐसे हो जाओ कि तुम्हें कुछ बुरा ही नहीं लगता, तो फ़िर तुम्हें ये भी बुरा नहीं लगेगा कि दूसरों को बुरा लगा।
सच की ख़ातिर अगर तुम्हें बुरा लगना बन्द हो जाए, तुम अगर कहो कि — “बात अगर सच्ची है तो फ़िर हम बुरा मानेंगे ही नहीं,” तो फ़िर ये बुरा लगना भी बन्द हो जाएगा कि — “हमने सच पहुँचाया किसी तक और उसको बुरा लग गया।”
तो अभी बात दूसरों की नहीं है।
अभी असली बात ये है कि तुम खुद इस मूल्य को रखती हो कि — ‘ठेस नहीं लगनी चाहिए’।
और भद्र लोगों में, सभ्य-सुसंस्कृत लोगों में ये मूल्य बड़े परिमाण में विद्यमान होता है। मैंने यहाँ तक देखा है कि लोग कहते हैं कि, “सारी धार्मिकता बस एक वाक्य में यही है कि किसी को चोट मत पहुँचाओ।” अरे, शायर बिलकुल आसमान पर चढ़कर घोषणा करते हैं कि — “हटाओ सारे धर्म-मज़हब, असली बात बस एक है — किसी को तक़लीफ़ मत देना। तुम्हारी वजह से किसी की आँख से एक आँसूँ नहीं छलकना चाहिए।”
हमें तो ये पता है कि जब भी गुरुजन आए हैं, संत आए हैं, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट आए हैं, तो उनकी बात तो बहुतों को बुरी लगी है। पर शायद ये शायर और बुद्धिजीवी, कृष्णों से कुछ आगे की बात कह रहे होंगे कि — “सारी धार्मिकता बस यही है कि किसी की आँख से बस आँसूँ न आ जाएँ।”
मीरा तो उम्र भर रोईं थीं।
पर कौन जाने, कौन पढ़े किसी मीरा, किसी फ़रीद, किसी कबीर के बारे में, जो ख़ूब रोए।