दूसरे क्या सोचेंगे, दुनिया क्या कहेगी?

दूसरे क्या सोचेंगे, दुनिया क्या कहेगी?

प्रश्नकर्ता: मैं जब अपनी ज़िन्दगी के बीते सालों को देखता हूँ तो दिखता है कि बहुत कुछ किया जा सकता था पर दूसरे क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, ये ख़्याल कर-करके मैंने कुछ किया नहीं। और आपका जीवन देखता हूँ तो पाता हूँ कि आपने सब कुछ लीग (संघ) से हटकर किया, कोई नायाब काम करने से कभी डरे नहीं। आपने लाइफ एजुकेशन (जीवन शिक्षा) जैसे काम को कॉर्पोरेशन के साथ जोड़ दिया, सन दो हज़ार छह में यूपीएससी छोड़ दिया, बिना ख़्याल करे कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। कृपया समझाएँ कि ये दूसरे क्या सोचेंगे इत्यादि बीमारियों से कैसे बचूँ? कैरियर में लीग से हटकर कुछ एकदम नया आज़माने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ? आपने तो अपनी युवावस्था में ही सीधे उपनिषद् पढ़ाने की संस्था शुरू कर दी थी, उतनी तो मेरी सामर्थ्य नहीं पर मैं कविता और शायरी लिखता हूँ। मैं कैसे इसे ऊँचे-से-ऊँचा करके अपना कैरियर बनाऊँ?

आचार्य प्रशांत: तो दो बातें पूछी हैं; ‘दूसरे सोचेंगे क्या?’ इस बीमारी से कैसे बचूँ और कैरियर में कुछ एकदम अलग करने की हिम्मत कहाँ से लाऊँ। देखो, कुछ बिलकुल ज़मीनी बातें हैं जिन्हें तुम जानते हो, मैं बस उनकी ओर तुम्हारा ध्यान आकृष्ट करूँगा। जब किसी का भला करने जा रहे होते हो तो क्या ये ख्याल करते हो कि वो क्या सोचेगा? जब किसी का भला करने जा रहे होते हो तब भी क्या घबराते हो, कि, “अरे वो क्या सोचेगा मैं उसका भला करने जा रहा हूँ”?

दूसरी बात, जब किसी के मानसिक स्तर से ऊपर उठकर तुम कोई काम करते हो, साधारण, औसत मानसिक स्तर से ऊपर उठकर, तो क्या ख्याल करते हो कि सामने वाला व्यक्ति क्या सोचेगा? उदाहरण के लिए, बच्चों के बीच बैठकर तुम कुछ कर रहे हो जो बच्चों की समझ में बिलकुल नहीं आ रहा। हो सकता है तुम जो कर रहे हो वो बच्चों के लिए कुछ अजूबा सा हो, बच्चों के लिए कोई मज़ाक की बात हो, तब क्या तुम्हें ये खयाल आता है कि, “बच्चे क्या सोचेंगे मेरे बारे में”?

तीसरी बात, जब तुम कुछ ऐसा कर रहे होते हो जो तुम्हारे ह्रदय के बहुत निकट का होता है, जो तुम्हें इतना प्यारा होता है कि उसको किए बिना तुम जी नहीं सकते, क्या तुम तब भी यही विचार कर रहे होते हो कि दूसरे क्या सोचेंगे? क्या उस पल में दूसरे तुम्हारे विचार में होते भी हैं, कोई महत्व रखते भी हैं?

तो ये तीन बातें मैंने कही, इन तीनों बातों को एक साथ समझिए। दूसरे को लेकर झिझकना या शर्माना, कुछ लज्जित सा, कुंठित सा अनुभव करना तो तभी होता है जब दूसरे से कुछ नोचने खसोटने जा रहे हो, दूसरे को धोखा देने जा रहे हो। तब ज़्यादा भीतर से आत्मग्लानि उठती है कि, “अरे मैं इतना नीच काम कर रहा हूँ, वो क्या सोचेगा मेरे बारे में? मैं उसी का अपहित करने जा रहा हूँ, वो क्या सोचेगा मेरे बारे में? कुछ गलत ही करने जा रहा हूँ न मैं उसके…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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