दुर्योधन की जीत में भी हार, अर्जुन की हार में भी जीत

दुर्योधन की जीत में भी हार, अर्जुन की हार में भी जीत

आचार्य प्रशांत: तो पहले अध्याय का दोहराव हमने पिछले सत्र में पूरा करा, ‘विषादयोग’। अर्जुन भ्रमित हैं, दुखी हैं और लगभग निश्चय कर चुके हैं कि मैं नहीं लड़ूँगा। और न लड़ने के पीछे जो दो तत्व वो बता रहे हैं, वो क्या थे मोटे तौर पर? वृत्तियाँ और?

श्रोता: मोह।

आचार्य: मोह तो वृत्ति में ही आ गया। वृत्ति और संस्कृति। ठीक है न? दो बातों का आश्रय लेकर के अर्जुन लड़ने से इनकार कर रहे हैं।

वृत्ति क्या है, जिसके चलते कह रहे हैं कि नहीं लड़ूँगा? क्या वृत्ति है? मोह और कदाचित भय। मोह और भय। ‘मेरे हैं न’, ममत्व, ममता। ‘मेरे हैं। जितने सामने खड़े हैं उनमें बहुत सारे तो मेरे मित्र ही रहे हैं, भाई हैं ही, सम्बन्धी हैं, मामा हैं। भाइयों के पुत्र हैं तो वो मेरे पुत्र समान ही हुए। और दो तो बहुत ही विशेष हैं, एक द्रोण और एक भीष्म, इनको मार कैसे दूँगा मैं? एक ने चलना सिखाया, एक ने धनुष पकड़ना सिखाया। कल्पना भी नहीं कर सकता कि इनको मारूँगा।’

और कृष्ण कुछ नहीं कह रहे हैं, पूरा पहला अध्याय अर्जुन के विषाद को समर्पित है। और आख़िरी श्लोक, सैंतालीसवें श्लोक में अर्जुन कहते हैं, ‘मैं नहीं लड़ूँगा’ और बैठ जाते हैं। अर्जुन ऐसी ही बात आगे भी कहते हैं। दो बार अर्जुन ने घोषणा करी है न लड़ने की, एक बार पहले अध्याय में, एक बार दूसरे अध्याय में। तो दूसरे अध्याय के भी जो आरम्भिक श्लोक हैं, वो पहले अध्याय का ही विस्तार जानिए। ठीक है? जहाँ पहला अध्याय समाप्त होता है, ठीक वहीं अभी दूसरा अध्याय शुरू होता है। यहाँ भी आप अभी…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org