दुनिया मुझ पर हावी क्यों हो जाती है?

प्रश्नकर्ता: सर, मैंने देखा है कि मेरी ख़ुशी, दुसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं, उसपर निर्भर करती है। ऐसा क्यों होता है?

आचार्य प्रशांत: और क्या हो सकता है? क्या तुम्हें और कुछ होने की भी उम्मीद है?

प्र: हाँ, सर।

आचार्य: क्या उम्मीद है?

प्र: सर, ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि मुझे फ़र्क न पड़े कि कोई मेरे बारे में क्या कह रहा है।

आचार्य: फर्क न पड़े! तुम कैसे हो?

प्र: सर, नार्मल।

आचार्य: नार्मल माने क्या?

प्र: सर, कोई अच्छा या बुरा कहे तो कोई फ़र्क न पड़े।

आचार्य: अगर अच्छे या बेकार का तुम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा तो ज़्यादातर चीज़ें जो तुम परिणाम के लिए करते हो वो तुम करोगे नहीं। देखो, बदलाव टुकड़ों में नहीं होता। यह कहना बहुत आसान है कि मैं ऐसा हो जाऊँ कि मुझ पर दूसरों के कहे का फ़र्क न पड़े। दूसरे हँसे तो भी मैं वही करता रहूँ जो मैं कर रहा हूँ और दूसरे तारीफ़ करें तो भी मेरे करने में कोई अंतर न आए। लेकिन उसमें एक पेंच है वो यह है कि अगर दूसरे हँसे नहीं या दूसरे तारीफ़ न करें तो तुम वो ज़्यादातर काम करोगे ही नहीं जो तुम करते हो।

समझो बात को! तुम कहते हो कि मैं कुछ करता हूँ और उस काम के अंत में मुझमें यह अंतर न पड़े कि लोग क्या कहेंगे। पर तुम पर अगर अंतर न पड़ता होता लोगों का कि क्या कहेंगे तो तुम ये काम करते ही नहीं। तो तुम जो मांग रहे हो, वो असंभव है। क्योंकि पूरी ज़िन्दगी…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org