दुनिया को तो समझो ही, और कुछ और भी

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न अमृतबिंदू उपनिषद् से है। सत्रह्वे श्लोक में ध्यान के विषय में बताया गया है। कृपया उसे स्पष्ट करें।

द्वे विधे वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परम् च यत्।

शब्दब्राह्मणि निष्णात: परम् ब्रह्माधिगच्छति।।

शब्दार्थ: दो विद्याएँ जानने योग्य हैं, प्रथम विद्या को ‘शब्द ब्रह्म’ और दूसरी विद्या को ‘पार ब्रह्म’ के नाम से जाना जाता है। ‘शब्द ब्रह्म’ अर्थात् वेद-शास्त्रों के ज्ञान में निष्णात होने पर विद्वान् मनुष्य *पार ब्रह्म को जानने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है।।*

~ अमृतबिंदू उपनिषद् (श्लोक १७)

आचार्य प्रशांत: दो तरह के ध्यान की बात यह श्लोक कर रहा है। अमृतबिंदू उपनिषद् का सत्रह्वा श्लोक है। उसका जो अंग्रेज़ी में अनुवाद दिया हुआ है उसके कारण आप शायद थोड़े भ्रमित हुए होंगे, नहीं तो बात बहुत सीधी है।

दो तरह के यथार्थ पर केन्द्रित होने को श्रुति कहती है। एक वो जो इस जगत का यथार्थ है और एक वो जो जगत के पार का यथार्थ है। एक वो जो सगुण यथार्थ है, एक जो निर्गुण यथार्थ है। सगुण यथार्थ को नाम दिया गया ‘शब्द ब्रह्म’ और निर्गुण यथार्थ को कहा गया ‘पार ब्रह्म’।

क्या?

शब्द ब्रह्म और पार ब्रह्म

और मनीषियों ने हमसे कहा दोनों को जानना ज़रूरी है। मेरी भाषा में मैं शब्द ब्रह्म को जानने को कहता हूँ — तथ्य की साधना। क्योंकि शब्द तो सब लौकिक ही होते हैं। अनुवाद में शब्द ब्रह्म को ॐ बता…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org