दुख का अंत सुख पाकर नहीं होता!
आचार्य प्रशांत: श्रीमद्भगवद्गीता, सांख्ययोग, दूसरा अध्याय, बावनवाँ श्लोक।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।२.५२।।
जब तुम्हारी बुद्धि, मोह या अज्ञान रूप पाप को छोड़ देगी तब सुनने योग्य और सुने हुए विषयों में तुम्हें वैराग्य प्राप्त होगा अर्थात् वे विषय तुम्हारे सामने निरर्थक हो जाएँगे।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५२
अर्जुन को कह रहे हैं श्रीकृष्ण — “जब तुम्हारी बुद्धि, मोह या अज्ञान रूप पाप को छोड़ देगी तब सुनने योग्य और सुने हुए विषयों में तुम्हें वैराग्य प्राप्त होगा अर्थात् वे विषय तुम्हारे सामने निरर्थक हो जाएँगे।”
जिस शब्द का उपयोग करते हैं कृष्ण, वो है ‘निर्वेद’। ‘तुम निर्वेद हो जाओगे, अर्जुन! तुम्हारे मन से मोह और अज्ञान जब हटेगा तो जितनी सुनी-सुनाई बातें हैं, इनके पाश से तुम मुक्त हो जाओगे।’
पिछले कुछ श्लोकों में भी कृष्ण कह रहे हैं कि वेदों में जो कामना-मूलक कर्म हैं, जो व्यक्ति उन्हीं के प्रति ज़्यादा प्रशंसा और आतुरता रखता है, उस व्यक्ति को कभी ज्ञान नहीं प्राप्त हो पाता। यहाँ भी निर्वेद होने के लिए कह रहे हैं।
‘कर्मकांड’ है वेदों का, जिससे मुक्त होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं अर्जुन को। क्योंकि कर्म तो सारे ही बन्धनों का कारण बनते हैं। कर्म से आशय है साधारण, सकाम कर्म। भूलेंगे नहीं कि अभी अर्जुन को निष्काम कर्मयोग में दीक्षित किया जा रहा है।
अब अर्जुन को सिखाना है ‘निष्काम कर्मयोग’, लेकिन अर्जुन के मन में पाप-पुण्य की अवधारणा गहराई से बैठी हुई है। वो अवधारणा कहाँ से आ रही है? वो अवधारणा, श्रीकृष्ण देख पा रहे हैं कि वेदों के कर्मकांड से आ रही है। और वही जो कर्मकांड का भाग है वेदों का, वो जन-सामान्य में संस्कृति बनकर प्रचलित हो गया है। उसी सांस्कृतिक नैतिकता ने अर्जुन को यहाँ पर बाँध रखा है।
क्या कहता है वेदों का सकाम भाग? कहता है, ‘ऐसे कर्म करोगे तो पुण्य मिलेगा और वैसे कर्म करोगे तो पाप होगा। और जो कर्म करके तुम्हें पुण्य मिलेगा उनकी पराकाष्ठा होगी स्वर्ग का सुख-लाभ।’ मोक्ष नहीं, मुक्ति नहीं, सुख। कर्मकांड कहता है, ‘जैसा कि हम तुमको बता रहे हैं, पुण्य बहुत करोगे, यज्ञ करोगे, दान-दक्षिणा करोगे या इस तरह के आचरण का, या इस तरह की मर्यादा का पालन करोगे, इस प्रकार के संस्कारों पर चलोगे तो तुमको सुख खूब मिलेगा। तुमको स्वर्ग-तुल्य सुख का लाभ होगा। और इसके विपरीत किया तुमने, जो मर्यादाएँ, जो आचरण हम बता रहे हैं उनका उल्लंघन किया, वर्जनाएँ तोड़ीं, जो नीति हम तुम्हारे सामने रख रहे हैं उस पर नहीं चले, तो तुम्हें पाप लगेगा!’
ये दोनों ही बातें मन को भविष्य में ढकेल रही हैं। ये दोनों ही बातें निष्काम कर्म से दूर खींच रही हैं मन को। आप अच्छा भी कर रहे हो तो इसलिए कि उससे कुछ मिल जाए। आप बुरा करने से बच रहे हो तो इसलिए कि उससे कुछ बुरा मिल सकता है।
अब ये बातें साधारण नैतिकता के तल पर उपयोगी हो सकती हैं। एक सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने में उपयोगी हो सकती हैं। पर जब विशुद्ध-धार्मिकता, माने आध्यात्मिकता की बात आती है तब इन बातों का कोई मूल्य नहीं है। इसीलिए बार-बार श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मकांड से मुक्त कराने की कोशिश कर रहे हैं, अर्जुन को ज्ञान की तरफ़ भेज रहे हैं। और इन दोनों बातों में देखिए बहुत अन्तर है। कहने को ये दोनों ही चीज़ें वेदों में ही उल्लेखित हैं, कर्मकांड भी और ज्ञान मार्ग भी, लेकिन इन दोनों में अन्तर ज़मीन और आसमान का है। सिर्फ़ इसलिए कि ये दोनों ही वेदों के अन्तर्गत आते हैं, इनको हम एक नहीं मान सकते। इनमें बहुत कम है जो साझा है। समझ में आ रही है बात?
और जो थोड़ी ख़तरे की बात है वो ये है कि वेदों का अस्सी-नब्बे प्रतिशत अंश — यदि हम श्लोकों की संख्या गिनें तो — किसको समर्पित है? कर्मकांड को समर्पित है। और इसका परिणाम ये हुआ है कि जन-सामान्य में धारणा ये बन गयी है कि वेद का मतलब ही है कर्मकांड। ‘इस देवता की इस तरह उपासना करो। मन्त्रोच्चार इस विधि से करना है। यज्ञ ऐसे करना है। पूजा, उपवास, व्रत आदि के विधान ये हैं।’ लोगों ने इसी बात को वैदिक धर्म समझ लिया है। जबकि गीता का यदि किसी ने ज़रा भी पाठ किया होता तो उन्हें दिखाई देता है कि वेदों के उसी अंश से खींचकर के कृष्ण अर्जुन को वेदों के ही ज्ञान खंड की ओर ले जा रहे हैं। जिसका क्या नाम है? वेदान्त। जिसको उपनिषदों के रूप में प्रतिनिधित्व मिलता है। और उपनिषदों का ही सार फिर गीता रूप में हमारे सामने आता है। समझ में आ रही है बात ये?
‘निर्वेद — अर्जुन, तुम निर्वेद हो जाओ।’ ‘विद्’ माने? वो सबकुछ जो तुमने अभी तक पढ़ा-लिखा है। वो सबकुछ जो श्रुति के कर्मकांड ने तुमको सुझाया है। तुम्हें उससे मुक्त होना पड़ेगा। क्योंकि वहाँ पर बात सारी कामना-पूर्ति की है और जो कामना-पूर्ति के मार्ग पर लगा हुआ है, जैसा कि पहले के श्लोक में कृष्ण हमें कह रहे थे, ज्ञान कभी उसको समझ में नहीं आता।
जिसके मन पर इच्छाएँ हावी हैं, उसको तुम ऊँची-से-ऊँची बात बता दो, उसको समझ में नहीं आएगी। तो कोई ऊँची बात बताने से पहले, और बताने के साथ-साथ फिर आवश्यक हो जाता है कि सुनने वाले के मन में सकामता को लेकर के जो धारणाएँ बसी हुई हैं, उनको उखाड़ा जाए, उन्हें खंडित किया जाए।
इसलिए श्रीकृष्ण को यहाँ पर कहना पड़ रहा है कि अर्जुन तुम निर्वेद हो जाओ। पहले भी बहुत बार बोला है, आगे भी बोलेंगे। क्योंकि जहाँ कामना है वहाँ मोह और अज्ञान हैं, और मोह और अज्ञान हैं तो अर्जुन कैसे लड़ेगा? मोह ही है जो अर्जुन को धर्म के पथ पर युद्ध करने से रोक रहा है। और सकामता का अर्थ ही है मोह। अज्ञान ही है अपने मूल स्वरूप के बारे में जो अर्जुन को यहाँ पर विचलित कर रहा है। धर्म मार्ग से डिगा रहा है।
तो कृष्ण को वो कारण तो नष्ट करना पड़ेगा न, जिसने अर्जुन के मन में मोह की स्थापना करी है। वो कारण क्या है? वो कारण है ‘जन-संस्कृति’। जिसने उस समय भी और आज भी वैदिक धर्म के अनुयायियों में ये बात डाल दी थी कि धर्म का अर्थ है किसी ऊँची शक्ति के सामने खड़े हो जाना और कामना-पूर्ति की माँग या प्रार्थना करना। यही धारणा तब चल रही थी, यही धारणा आज चल रही है। और उस ऊँची शक्ति से अगर तुम कामना-पूर्ति की माँग कर रहे हो तो फिर इस ऊँची शक्ति ने जो नियम बनाये हैं, तुम्हें उनका पालन करना पड़ेगा। नहीं तो फिर वो शक्ति तुमसे पूछेगी, अप्रसन्न होकर कि जब तुम मेरे बनाये नियमों पर नहीं चलते तो मैं तुम्हारी इच्छाएँ पूरी क्यों करूँ!
वो जो ऊपर से नियम आ रहे हैं, तथा-कथित, उनको हमने क्या नाम दे दिया? नीति, नैतिकता। और हमने कहा कि — जो भी हैं, देवी हैं, देवता हैं, उस ऊँची शक्ति को हमने बहुत तरह के नाम दिये हैं, कि ईश्वर कह दिया, भगवान कह दिया, देवी-देवता कह दिया — हमने कह दिया वहाँ से जो नियम आ रहे हैं हम उनका पालन करेंगे। हम उनका अगर पालन कर रहे हैं तो हम पुण्य कमा रहे हैं।
और अगर हम पुण्य कर रहे हैं तो हमें अधिकार प्राप्त हो जाता है कि फिर हम जाकर उस पुण्य को भुनायें, एक तरह का क्रेडिट वाउचर ! बात समझ में आ रही है? ‘देखो, मैंने इतना पुण्य करा है अब मैं ये पुण्य लेकर के आया हूँ, मैं इसको अब भुनाना चाहता हूँ, मैं इसको रिडीम करना चाहता हूँ।’ यही है धर्म का कुल लेखा-जोखा जो अज्ञान के कारण, पूर्व वैदिक काल से लेकर आज तक सनातनियों के मन में चला आ रहा है।
कुल धर्म हमारे लिए बस इतना ही है! एक ऊँची शक्ति है, जिसका कोई नाम दे दो, उस ऊँची शक्ति ने निर्देश दिये हैं, नियम बनाये हैं। वो ऊँची शक्ति कहती है, ‘ऐसे-ऐसे, ऐसे-ऐसे आचरण करो। अगर हम उसके प्रकार से आचरण करेंगे तो वो हमें सुख देगी और हमारी कामनाएँ पूरी करेगी। सुख है ही किसमें? कामनाओं की पूर्ति में। तो मेरी जो भी कामनाएँ हैं उनको वो ऊँची शक्ति पूरी कर देगी और मैं वहाँ पर जाकर के हक़ से, अधिकार से बोल पाऊँगा, ‘देखो, तीन साल तक मैंने तुम्हारे सारे नियमों का पालन करा है, अब मेरी इच्छाएँ पूरी करो।’ और अगर मैंने उसके बनाये नियमों का उल्लंघन करा तो मुझे दुख मिलेगा, पाप लगेगा, नर्क मिलेगा।
कुल मिला-जुलाकर के हमारा धर्म इतना ही है। आम आदमी के मन में धर्म की जो अवधारणा है वो इससे ऊपर कुछ भी नहीं है। आप सोचकर देखिए, आप मुझे बताइए इसके अतिरिक्त कुछ। पूरी कहानी का सार, लब्बोलुबाब, मर्म इतना ही तो है। इसी को तो हम धर्म कहते हैं न?
कृष्ण अर्जुन को वास्तविक धर्म की ओर ले जाना चाहते हैं। कृष्ण कह रहे हैं, ‘कहाँ तुम फँसे हुए हो बाल-कथाओं में, ये थोड़े ही धर्म है! एक ही अधर्म है — मन को कामनाओं पर चलने देना। यही अधर्म है। तो ऐसे धर्म को तुम अधर्म ही जानो जो मात्र तुम्हारी कामना-पूर्ति का साधन भर हो, भले उस कामना-पूर्ति के लिए उसने कितनी भी शर्तें निर्धारित कर रखी हों कि ऐसा-ऐसा-ऐसा करोगे तो तुम्हारी कामना-पूर्ति हो जाएगी। तुमने उन शर्तों को पूरा कर दिया बेशक, लेकिन किसलिए किया? कि ये सब कर दूँगा तो मुझे मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाएगी। और तुम्हारा मन है ही कितना बड़ा कि बहुत बड़ी वस्तु चाहेगा?’ मन चाहता है कोई छोटी सी वस्तु जो उसके ही वास्तविक हितों के विरुद्ध जाती है। ये कोई धर्म हुआ?
धर्म है मन को उसकी इतिश्री तक ले जाना, उसके गन्तव्य तक ले जाना, वहाँ तक ले जाना जहाँ वो लीन हो जाता है, जहाँ आकाश में समा जाता है, जहाँ लय हो जाता है, वो गल जाता है, मिट जाता है। और प्रेम की भाषा में कहो तो जहाँ अपने प्रेमी के साथ उसका एक आख़िरी मिलन हो जाता है, जिसमें अब विरह की, विछोह की कोई सम्भावना बचती नहीं। ये है अध्यात्म का वास्तविक लक्ष्य।
अब समझ में आ रहे दो तरह के धर्म, साधारण धर्म और वास्तविक धर्म में अन्तर क्या होता है? कुछ समझ में आ रहा है? साधारण धर्म का लक्ष्य क्या होता है? कामना-पूर्ति। और वेदान्त का लक्ष्य क्या है? मुक्ति। साधारण धर्म का लक्ष्य क्या है? सुख; और वेदान्तका लक्ष्य है? मोक्ष। ये बिलकुल समझ लो।
इसीलिए जो ये सांस्कृतिक लोग होते हैं, जिसको हम संस्कृति कहते हैं, देखो, वो किस पर चलती है? वो तो साधारण धर्म पर ही चलती है न? जिसको तुम संस्कृति कहते हो, वो और कुछ नहीं है, वो तुम्हारे सुख के लिए तैयार की गयी एक व्यवस्था मात्र है। इसीलिए जो साधारण धर्म के अनुयायी होते हैं, इनके लिए धर्म और संस्कृति में कोई भेद नहीं रह जाता। क्योंकि संस्कृति का क्या मतलब होता है? तुम्हें ये बता दिया जाना कि कैसे चलो, कैसे न चलो। मन को कुछ धारणाएँ-मान्यताएँ दिये जाने को ही तो हम कहते हैं मन का संस्कारित होना। और मन को क्या धारणाएँ दी जाती हैं? किस उद्देश्य से धारणाएँ दी जाती हैं? इसी उद्देश्य से कि तुम ऐसा करो तो सुख मिलेगा। अब संस्कृति और धर्म एक हो जाते हैं।
तो साधारण धर्म में संस्कृति का विशेष महत्व हो जाता है। वहाँ मन को संस्कारित करना, कंडीशंड करना, बहुत ज़रूरी हो जाता है। और कोई भी आपको संस्कारित करता है तो आपको सदा यही बता कर करता है, ‘इस संस्कार पर चलो, इस मान्यता को मानो, तुम्हें सुख मिलेगा।’
साधारण धर्म का उद्देश्य है सुख की प्राप्ति। साधारण धर्म का एक तरह से उद्देश्य है अहंकार को और छूट दे देना, अहंकार का और बड़ा हो जाना। और वेदान्त का लक्ष्य है मन से मुक्ति। मन को वहाँ पहुँचा देना जहाँ वो अपनी बेचैनी, कलह, क्लेश के आगे निकलकर के एक अडिग शान्ति को प्राप्त करे, ये वेदान्त का उद्देश्य है।
अब ये भी समझ में आ रहा होगा कि क्यों बहुत कम लोग हैं जिन्हें वेदान्त समझ में आता है। कुछ लोग होंगे जो रुचि दिखाते हैं। रुचि दिखाने वाले ही बहुत कम हैं। उसके बाद जिन्हें समझ में आये, ऐसे तो और भी कम हैं। क्योंकि ये दोनों चीज़ें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। कृष्ण ने हमें बताया था न, ‘तुम्हारे मन में अगर वेदोक्त काम्य-कर्मों ने डेरा डाल रखा है कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है, ऐसा करो तो ऐसा होगा, तुम्हारे मन में इस तरह की धारणाओं ने अगर डेरा डाल रखा है तो ज्ञान तुम्हें समझ में नहीं आएगा। अगर कर्मकांड तुम्हें थोड़ा भी आकर्षक लगता है तो ज्ञान तुम्हारे पल्ले पड़ेगा ही नहीं।
तो आप फिर भले ही ज्ञान में रुचि दिखा भी दो, ज्ञान आपको समझ में नहीं आएगा, आपमें टिकेगा नहीं। ज्ञान सिर्फ़ उसके लिए है जो पूर्ण मुक्ति चाहता हो। जो सुख चाहता हो ज्ञान उसके लिए नहीं है। जिसने देख लिया हो कि सुख एक झूठ है, ढकोसला मात्र है, दिलासा मात्र है, दुख की प्रतीक्षा मात्र है, दुख की आशंका मात्र है, वो व्यक्ति फिर सुख की कामना करता नहीं है। और गीता की अगर हम सुनें तो सुख और सुख की कामना ही चित्त का सबसे बड़ा रोग है। जो सुख माँग रहा है, उसने अपने लिए घोर नर्क तैयार कर लिया।
और मन बचपन से ही ऐसा होता है कि उसको चाहिए सुख। बचपन से तो ऐसा होता ही है, फिर उसको जो संस्कार मिल जाते हैं, उस सुख की अवधारणा को और मज़बूत और गहरा कर देते हैं। हमें लगने लगता है ये बात तो बिलकुल उचित है, ये बात तो बिलकुल सत्य ही है कि हम सुख के खोजी बनें। एक तो जन्मगत वृत्तियाँ, जो सुख-सुख चिल्लाती हैं और उसके बाद आपको शिक्षा और संस्कार ऐसे दे दिये गये जो आपको सुख की ओर ही धकेलते हैं। ऐसा नहीं कि सुख मिलता है, बस एक अन्धी तलाश!
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं — न सुख की आशा रखो, न दुख से डरो, जो उचित है चुपचाप करो। बस, कुल निष्काम कर्मयोग यही है — न सुख की आस, न दुख का डर, जो सही है चुपचाप कर।
एक बात और समझिएगा। वेदान्त को बड़े-से-बड़ा विरोध साधारण लोगों से नहीं मिलता है। वेदान्त को बड़े-से-बड़ा विरोध तथाकथित धार्मिक लोगों से मिलता है क्योंकि वो अपनेआप को धार्मिक कहलवाना चाहते हैं। आम आदमी का तो ऐसा कोई दावा भी नहीं होता कि वो बहुत धार्मिक है। वो तो कहता है मैंने होली-दिवाली मना ली, मेरा धर्म इतना ही सा है। लेकिन जो लोग धार्मिक होने का दावा करते हैं वो वेदान्त से बहुत चिढ़ जाते हैं। क्योंकि वेदान्त उनकी पोल खोल देता है बिलकुल। वेदान्त बता देता है कि तुम्हारा धर्म हवा के गुब्बारे जैसा है। गीता के एक श्लोक की सुई लगेगी, फुस्स!
ये बात सुनने में विचित्र लगेगी लेकिन, वेदान्त आया ऋषियों से था और ऋषि अधिकतर ब्राह्मण थे, लेकिन वेदान्त को बड़े-से-बड़ा विरोध भी ब्राह्मणों और पंडितों से ही मिला। क्योंकि इतिहास जानता है कि ब्राह्मणों की आजीविका कर्मकांड पर आश्रित रही है। वेदान्त आ गया तो कर्मकांड कौन करवाएगा?
आज भी जिनकी आजीविका कर्मकांड पर आश्रित रही है या जिनके बाप-दादाओं की आजीविका कर्मकांड पर आश्रित रही है उन्हें वेदान्त फूटी आँख नहीं सुहाता। और मैं विधर्मियों की बात नहीं कर रहा। मैं मुसलमानों, ईसाई, यहूदियों की बात नहीं कर रहा। मैं धार्मिक हिन्दुओं की बात कर रहा हूँ। उन्हें नहीं वेदान्त समझ में आता। आता भी नहीं, समझना चाहते भी नहीं।
वेदान्त समझ लिया तो जैसे जी रहे हैं, जी नहीं पाएँगे। जो धारणाएँ बना ली हैं, जो झूठ पकड़ रखे हैं, जिन व्यर्थ की चीज़ों को धर्म का नाम दे दिया है, वो सब त्यागनी पड़ेंगी। उनके साथ अब उनके स्वार्थ जुड़ गये हैं तो त्यागें कैसे? समझ में आ रही है कुछ बात?
कर्मकांड की उपयोगिता कुछ है भी तो बस इतनी कि जिन लोगों में ज़रा भी अनुशासन नहीं होता, उनको कुछ अनुशासन देकर के तैयार किया जाता है कि अब वो ज्ञान की तरफ़ बढ़ सके। बस इतनी सी उपयोगिता है। लेकिन उपयोगिता छोटी है और ख़तरा बहुत बड़ा है। ख़तरा ये है कि अधिकांश लोग उसी कर्मकांड को ही धर्म समझकर उसी पर जीवन भर अटके रहते हैं, ‘ऐसे तिलक करना है, ऐसे माला लगानी है। सिर घुटाया कि नहीं? शिखा पहनते हो कि नहीं? संध्या-वन्दन करते हो कि नहीं?’ यही धर्म है उनके लिए। ‘यज्ञोपवीत बताओ।’ यही धर्म है उनका। ‘कितने संस्कार कराये तुमने, बताओ।’
यहाँ खेल सारा श्रीकृष्ण का और भगवद्गीता का है — संस्कारों से मुक्ति। और तथाकथित धार्मिक लोग बस यही गिनते रहते हैं कि संस्कारों पर चल रहे हो या नहीं चल रहे हो। स्पष्ट हो रही है कुछ बात?
फिर से दोहराते हैं, धर्म कामना-पूर्ति का साधन नहीं है। धर्म इसलिए है ताकि आप अपने सब बन्धनों से — जिनका नाम है कामना — मुक्त हो जाएँ। सुख नहीं, मुक्ति। भोग नहीं, मोक्ष।
कोई श्लोक सुनो जिसमें किसी देवता को प्रसन्न करने की बात की जा रही हो, कि ऐसा-ऐसा करेंगे तो फ़लाने देव प्रसन्न हो जाएँगे, ये क्या है? सकामता या निष्कामता? तो क्या हम इसे धर्म कह सकते हैं? नहीं। कम-से-कम वेदान्त इसको धर्म नहीं मानेगा। बाक़ी आम जनमानस को जो मानना हो मानते रहे, लोगों का क्या है!
जाकर के किसी प्रतिमा पर या किसी अन्य प्रतीक पर दूध-ही-दूध चढ़ाया जा रहा है, ये किसलिए है? कामना पूर्ति के लिए या कामना से मुक्ति के लिए?
श्रोता: कामना पूर्ति के लिए।
आचार्य: ये कृष्ण की गीता नहीं हुई। कृष्ण ने ये सब नहीं सिखाया। समझ में आ रही है बात?
अब आगे सुनिए। कृष्ण कह रहे हैं, ‘फल देने वाली अनेक वैदिक श्रुतियों को सुनकर तुम्हारी बुद्धि विक्षिप्त हो गयी है, अर्जुन।’ कृष्ण कह रहे हैं, ‘जो फल देने वाली बातें ज़्यादा सुनता है, जो फल देने वाले श्लोक ही सुनता रहता है, वो पागल और हो जाता है।’ ये सम्बन्ध है कर्मकांड और ज्ञानकांड में। ‘फ़लाना व्रत करो तो धन-धान्य की प्राप्ति होती है। सप्ताह में इस दिन इतनी बार उपवास कर लो तो मनचाहा पति मिलता है।’ ये धर्म है?
मैं नहीं कह रहा, कृष्ण क्या कह रहे हैं, सुन लीजिए।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।२.५३।।
जब अनेक प्रकार की लौकिक और वैदिक फल-श्रुतियों को सुनकर विक्षिप्त हुई तुम्हारी बुद्धि निश्छल हो जाएगी तब तुम समबुद्धि की योगावस्था को प्राप्त होओगे।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५३
‘अभी तो तुम विक्षिप्त हो, तुम्हारे दिमाग में यही घूम रहा है, और ये सब तुमने कहाँ पढ़ा है? ये सब तुमने वैदिक कर्मकांड में पढ़ा है। इसने तुम्हें विक्षिप्त कर दिया है। यही विक्षिप्तता का कारण है — सुख की खोज, कामना का अनुगमन।’ जिधर-जिधर इच्छा ले जा रही है उसके पीछे-पीछे नौकर की तरह चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। और यही जो सुख की खोज है ये सनातन समाज में हर प्रकार की रूढ़ि और अन्धविश्वास का कारण है।
अँगूठी क्यों पहनी है? मुक्ति मिलेगी इसलिए? अँगूठी से मुक्ति मिलेगी? वो तो ख़ुद बाँधकर रखती है, तुम्हें मुक्त कैसे करेगी? यहाँ भी किसी-न-किसी ने पहन तो रखी होगी! कौन है, कौन है? कामना-पूर्ति होगी इसीलिए न? फ़लाना पत्थर लगाने से ये मिलता है। फ़लाना चीज़ करने से ये मिलता है। और कुछ चीज़ें वर्जित हैं, फ़लाने दिन बाल कटाने से इस प्रकार का नुक़सान होता है। कामना का खेल देख रहे हो?
कृष्ण यही समझा रहे हैं अर्जुन को — जहाँ कामना का खेल चल रहा हो उसे धर्म नहीं कहते, अर्जुन! धर्म कामना की पूर्ति का नहीं, कामना से — जल्दी से बोल दिया करो (श्रोताओं से कहते हुए) — मुक्ति का नाम है, कामना की पूर्ति का नहीं।
“जब अनेक प्रकार की लौकिक, वैदिक, फल-श्रुतियों को सुनकर विक्षिप्त हुई तुम्हारी बुद्धि समाधि में निश्चल हो जाएगी, तभी तुम समबुद्धि योगावस्था को प्राप्त होओगे।”
हर समय तुमको बताया जा रहा है, ‘अगर तुमने ऐसे-ऐसे काम कर लिए तो अगले जन्म में तुमको ऐसे सुख प्राप्त होंगे।’ पगला तो जाओगे ही! यही तो है, भविष्य का पागलपन और क्या है? सबसे बड़ा जो पागलपन भविष्य के नाम पर खड़ा किया जा सकता है उसको कहते हैं स्वर्ग। ‘अभी कुछ अच्छा कर लो आगे स्वर्ग मिलेगा।’ उसी स्वर्ग की तलाश है, जो हमारे आने वाले कल को हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण बना देती है। ले-देकर के हर व्यक्ति जो भविष्योन्मुखी है, वो वास्तव में किसी स्वर्ग की तलाश कर रहा है, किसी नर्क से डर रहा है।
स्वर्ग का सिद्धान्त ही कल को लेकर हमारी विक्षिप्तता है। मन भविष्य की ओर भागता है न, उसी भागम-भाग को तुम एक सिद्धान्त का रूप दे दो, एक बड़ा सुनहरा जामा पहना दो, तो नाम आएगा ‘स्वर्ग’। सबको कल क्या चाहिए? स्वर्ग। और सबको कल में किससे डर लगता है? नर्क। बस यही है।
स्वर्ग और नर्क और कुछ नहीं है, चित्त की भविष्य सम्बन्धी विक्षिप्तता का नाम है। चित्त को भविष्य में जाना है। भविष्य को लेकर उसने जो आशा बाँधी वो स्वर्ग हो गयी, भविष्य को लेकर जो आशंका बाँधी वो नर्क हो गयी, बस। और यही चीज़ फिर बनती है पुनर्जन्म को लेकर व्याप्त भ्रष्ट मान्यताएँ। क्योंकि कल तुमको अपने लिए कुछ अच्छा चाहिए, कल तुमको कुछ अच्छा चाहिए तो आज कुछ करो न। ये कर्मकांड ही तो हुआ।
अब अगले जन्म में तुमको चाहिए कि तुम दुनिया के सबसे अमीर आदमी के घर पैदा हो और तुम सबसे ख़ूबसूरत हो और साढ़े-छः फीट तुम्हारा क़द हो और सबकुछ तुम्हारे पास हो। तो तुमको कल क्या चाहिए? कल तुमको बहुत भारी सुख चाहिए। और तुम्हें बहुत भारी सुख चाहिए तो आज तुम्हें कुछ-कुछ उसके अनुसार काम करने पड़ेंगे। यही तो कर्मकांड है ‘कल सुख चाहिए तो उसके लिए आज कुछ करो न! आज कुछ करो न!’
ये भी समझ में आ रहा है कि कर्मकांड मात्र वेद का एक हिस्सा नहीं है। जो लोग वैदिक धर्म का अनुसरण नहीं भी करते, जो लोग किसी भी धर्म का अनुसरण नहीं करते, जो लोग सिर्फ़ एक भौतिक जीवन जी रहे हैं, वो भी कर्मकांडी ही तो हैं। वो क्या कर रहे हैं? वो कह रहे हैं, ‘अभी कुछ अच्छा करूँगा, इसका परिणाम अच्छा आएगा’, इसी को कर्मकांड कहते हैं। ‘अभी कुछ अच्छा करूँगा, इसका परिणाम अच्छा आएगा’, यही कर्मकांड है।
‘ज्ञानकांड’ कारणता को ही, कॉज़ेलिटी को ही खंडित कर देता है। कहता है, ‘कौन कर्ता? कौन कर्म? कैसा कारण? अहंकार का खेल है ये सब। पागलपन।’ पर बड़ी सूक्ष्म बात है। सुख की वासना से पीड़ित मन को ये सूक्ष्म बात समझ में आती नहीं। तो फिर वो इस बात को कभी अनदेखा करता है और कभी उसका सक्रिय विरोध कर देता है। समझ में आ रही है बात?
अब समझ में आ रहा है कि गीता को वास्तव में समझने वाले लोग इतने कम क्यों हैं? और कृष्ण की बाल-कथाओं और पौराणिक कथाओं में रस लेने वाले लोग इतने ज़्यादा क्यों हैं? क्योंकि गीता आपको सुख से मुक्त कराती है, और उन कथाओं में आपको सुख मिलता है। तो लोग उधर को भागते हैं जहाँ सुख मिलता है। गीता सुख नहीं देती, गीता तो स्वतन्त्र कर देती है।
उधर सुख मिलता है। ‘फिर ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ, फिर लाला ने ऐसा बोला, फिर फ़लानी गोपी आयी।’ बड़ा रस बरसता है, माधुर्य वर्षा! ‘ऐसा हुआ, वैसा हुआ’; जो सुन रहे हैं बिलकुल रस-मग्न हैं। गीता सुनकर तुम रस-मग्न थोड़े ही हो पाओगे, गीता तो पाँव के नीचे से ज़मीन खींच लेती है।
कितनी अज़ीब बात है न! हम कहते हैं कि कृष्ण हमारे उपास्य हैं, कृष्ण हमारे लिए सर्वोच्च हैं, कहते तो हम यही हैं न? और जिस कर्मकांड की कृष्ण लगातार निन्दा कर रहे हैं, हमने उसी कर्मकांड को अपना धर्म बना लिया!
दो वजहें थीं। पहला, मानव का मूल अज्ञान और दूसरा, पुरोहित वर्ग का स्वार्थ। पुरोहित वर्ग को इसका दंड ये मिलेगा कि लगभग पूरा सनातन समाज कर्मकांड से मुक्त हो जाएगा लेकिन वो पुरोहित वर्ग स्वयं इसमें फँसा रह जाएगा। क्योंकि इसने सदियों से इसी कर्मकांड को आगे बढ़ाया है और इसी कर्मकांड की रोज़ी-रोटी खायी है।
“जब अनेक प्रकार की लौकिक और वैदिक श्रुतियों को सुनकर तुम्हारी विक्षिप्त हुई बुद्धि समाधि में निश्चल हो जाएगी तब तुम समबुद्धि की योगावस्था को प्राप्त होओगे।”
तो समाधि की आपको यहाँ पर परिभाषा भी मिल गयी। बुद्धि की विक्षिप्तता के मिटने को ही समाधि कहते हैं। और बुद्धि की विक्षिप्तता क्या है? जब बुद्धि येन-केन-प्रकारेण सुख के पीछे भागे, इसी स्थिति को विक्षिप्तता कहते हैं। जब बुद्धि के पास विचारने को सुख के अतिरिक्त कोई विषय हो ही न, तो आदमी को कहना ‘विक्षिप्त है’। हर समय क्या सोच रहा है? ‘मज़ा कहाँ आएगा? कैसे मज़ा करें?’ यहाँ बैठे भी हैं सत्र में, गीता पाठ चल रहा है, और पीछे से यहाँ खोपड़े में कोई क्या फुसफुसा रहा है? ‘मज़ा कैसे मारना है!’ ये बुद्धि की विक्षिप्तता है।
बुद्धि से यहाँ आशय क्या है? चेतना का अग्रिम भाग। जैसे चेतना अगर एक तीर हो, तो बुद्धि क्या हुई? उस तीर की धार, जो अपने विषय का सन्धान करती है। मनुष्यों और अन्य प्राणियों की चेतना में अन्तर बुद्धि का ही होता है। उनके पास भी चेतना होती है, पर वो चेतना किसी भी दिशा में बढ़ नहीं पाती। क्योंकि उसके अग्रभाग में बुद्धि की तीक्ष्णता नहीं होती, पॉइन्टेडनेस नहीं होती। बुद्धि का मतलब है — तुमने चेतना की सारी शक्ति को किसी विषय में केन्द्रित कर दिया। अब तुम उस विषय को लेकर चैतन्य हो सकते हो। उसी को ज्ञान कहते हैं।
अन्य पशु ये नहीं कर पाते। मनुष्य अकेला पशु है जो ज्ञान अर्जित कर सकता है। अन्य पशु भी ज्ञान अर्जित कर लेते हैं पर बहुत अल्प मात्रा में। क्योंकि मनुष्य के पास क्या है? तीक्ष्ण बुद्धि। चेतना का तीक्ष्ण अग्रभाग, अ पोइंटेड काॉन्शियसनेस।
बुद्धि को किससे मुक्त करना है, कृष्ण कह रहे हैं? सुख की खोज से मुक्त करना है। तुम्हारी चेतना का जो तीर है वो सदा ऐसे ही विषय को क्यों जा रहा है जो सुख का लालच माने झाँसा दे रहा है? बुद्धि मिली हुई है, उसको किसी और दिशा में लगाओ न! तुम्हारी बुद्धि जाकर के अटक जाती है वहीं, कि उधर को अगर जाऊँ तो सुख मिलेगा। अब बुद्धि क्या विचार करेगी? ‘उधर को कैसे जाऊँ?’ बस इसी में बुद्धि खप रही है दिन-रात। दिशा सुख की। विधि निकालनी है बस बुद्धि को। विषय नहीं बदल पा रही बुद्धि। विषय को लेकर बुद्धि बिलकुल विवश है। बुद्धि इतना साहस, बल दिखा नहीं पा रही कि विषय को ही बदल दे। विषय तो वही रहेगा, कौनसा विषय? जो सुख का आमन्त्रण दे रहा है, ‘आओ-आओ सुख देंगे।’ तो बुद्धि तो बेबस हो गयी।
बेबस होने के बाद अब बुद्धि के लिए काम क्या बचा? कि अच्छा उधर अब जाना ही है तो देखो कि कैसे दुनिया को झाँसा देना है, कैसे वहाँ जल्दी से पहुँच जाएँ, कैसे स्वयं को ही मूर्ख बनाकर के वहाँ तक पहुँच जाएँ। कुल मिलाकर के हमारी बुद्धि इतना ही करती है। एक ग़लत दिशा में ले जाने में सहायक होती है हमारी बुद्धि। बुद्धि हम चलाते तो खूब हैं पर उल्टी चलाते हैं। इसी को कहते हैं विपरीत बुद्धि, “विनाश काले विपरीत बुद्धि।” चल तो खूब रही है पर किस दिशा में? अपने विनाश की दिशा में। इसी को विपरीत बुद्धि कहते हैं।
खूब खोपड़ा चलेगा, ज़बरदस्त, बैठकर एकदम गुन रहे हैं, एक-से-एक चाल चला रहे हैं, ऐसी-ऐसी युक्तियाँ निकाल रहे हैं कि साधारण आदमी पकड़ ही न पाये। जहाँ कहीं ज़रा सा अवसर देख रहे हैं, चाल चल दे रहे हैं। चालाकियों में इनका कोई सानी नहीं। लेकिन सब चालाकियों का कुल लक्ष्य क्या है? वो सुख के आगे विवश है। वो उधर उसने बुलाया, वहाँ थोड़ा सुख दिखाई दे रहा था, तो हमने जितनी चालाकी हो सकती थी सब दर्शा दी, कि वो थोड़ा सा सुख पा लें।
और वहाँ पहुँच भी गये इतनी बुद्धि, इतनी जोड़-तोड़ लगाकर के, तो मिलता क्या है, सुख? जो वहाँ मिलता है वो हमारे चेहरों पर छपा हुआ है। करा तो सबने वही है। क्यों भाई! क्या मिलता है? सारी चालाकियों के बाद दिन भर की कुटिलताओं का कुल सिला रात तक क्या मिलता है? कुछ नहीं, निराशा। माया इसमें है कि वो निराशा भी हमें सबक नहीं सिखा पाती। अगले दिन उठकर के हम फिर सुख के किसी दूसरे विषय की ओर अन्धे की तरह लुढ़कते-पुढ़कते चल देते हैं। आ रही है बात समझ में?
यही समाधि है। यही समाधि है, और नहीं है कुछ समाधि। बुद्धि बाहर जाने की अपेक्षा स्वयं को देख ले। उसको संचालित करने वाली जो भीतरी वृत्ति है उसका दर्शन कर ले, समाधि हो गयी। तुम्हें कोई कुटिल विचार उठे और तुम तत्क्षण समझ जाओ ये विचार कहाँ से आ रहा है, तो तुम समाधिस्थ हो।
साँप तुम्हें काटेगा क्या, तुमने उसके बिल में हाथ डालकर के उसको पकड़ लिया है, ये समाधि है। जो छुपा रहता है पाताल में साँप, तुमने सीधे उसके बिल में ही हाथ डाल दिया और उसको पकड़ लिया है। और ऐसा पकड़ा कि मुँह को पकड़ा, पूछ को नहीं। मुँह को पकड़ा, काट भी नहीं सकता, ‘ले अब काट।’ हमसे दूर रहेगा तो हमें काट सकता है, तेरे बिलकुल निकट आ जाएँगे। यही अन्तर्गमन है, अपने बिलकुल निकट आ जाना, आत्मज्ञान।
अपने इतने निकट आ जाना, अपने इतने निकट जाना — अपने माने किसके? आत्मा के निकट नहीं आया जाता, अहम् वृत्ति के — अहम् वृत्ति के इतने निकट आ जाना कि अब उसको सुविधा ही नहीं है तुम्हें फन मारने की। अब नहीं मार सकती। बहुत पास आ गये। कह लो वो साँप जैसी होती है जिसका मुँह पकड़ लिया तो काट नहीं सकती। या कह लो वो टैंक जैसी होती है, टैंक की जो नाल ही होती है, टुरेट, तुम उस पर बैठ जाओ आसन लगाकर, लटक जाओ उस पर, झूले की तरह झूलने लग जाओ, तुम्हारा कुछ बिगड़ सकता है? कल्पना करो। दूर थे तो उड़ा देगा तुमको। दस किलोमीटर दूर हो एकदम उड़ा देगा। तुम जाकर वहीं पर, उस पर पालथी मारकर बैठ जाओ, कुछ नहीं बिगड़ सकता तुम्हारा। इसी को कहते हैं समाधिस्थ होना।
दूरी में अज्ञान है। दूरी में जो तुम्हारा आन्तरिक शत्रु है तुम उसको बल दे देते हो। उसके बिलकुल पास रहा करो। वो जैसे ही ज़रा भी हिले-डुले, गतिविधि करे, जान जाया करो ये क्या कर रहा है। उसको बहुत कुछ करने का मौक़ा ही मत दो। समझ में आ रही है बात?
तब तुम समबुद्धि की योगावस्था को प्राप्त होगे। हमने क्या कहा था? सम कौन है? विषम कौन है? आत्मा सम है। प्रकृति विषम है। आत्मा सम है, प्रकृति विषम। तब तुम समबुद्धि की योगावस्था को प्राप्त होगे। अब तुम्हारी बुद्धि सुख का नहीं, आत्मा का वरण कर रही है। बुद्धि से आशय किससे है यहाँ पर? चेतना से। सुतीक्ष्ण चेतना को ही तुम बुद्धि समझो।
बुद्धि जो अगर किसी प्रयास में है भी, अगर उसे कोई धुन लगी भी हुई है तो बस ये कि झूठ कैसे हटाऊँ, सच कैसे पाऊँ, बोझ से मुक्त कैसे हो जाऊँ, हल्का और निर्भय होकर कैसे जियूँ। सिर में ये जो न जाने कौनसा दर्द घूमता रहता है, इसको उखाड़कर, नोचकर फेंक कैसे दूँ। आँखों में ये जो जाला सा लगा हुआ है, कैसे इसको हटा दूँ। ये सम बुद्धि है। ये आत्मा को चाहती है। इसे बोझ से और जालों से प्रेम ही नहीं। ये तुम्हारे अन्धेरे की रक्षा करने को तत्पर नहीं है। इसने अपने लिए ऐसा कोई प्रभार निर्धारित ही नहीं कर रखा।
कोई पूछे कि तुम्हारा क्या दायित्व है? तुम किसलिए हो बुद्धि? तो समबुद्धि ये नहीं कहेगी कि मैं जीव की रक्षा के लिए हूँ, मैं जीव के भरण-पोषण के लिए हूँ, मैं जीव के सुख के लिए हूँ। ऐसा पशुओं की बुद्धि कहती है, है न? पशुओं की बुद्धि जितनी भी होती है, किस दिशा में चलती है? ‘खाना कैसे मिल जाए, शरीर की सुरक्षा कैसे हो जाए!’ ये पशु की बुद्धि है।
समबुद्धि से पूछो, ‘तुम क्या कर रही हो? तुमने दायित्व क्या उठाया है?’ वो ये उत्तर नहीं देगी कि अभी मैं इस उधेड़बुन में लगी हूँ कि सुख की अगली ख़ुराक कहाँ से मिलेगी, कि शरीर को और मज़ा मैं कहाँ से दिला पाऊँगी, कि कामनाओं की पूर्ति का अगला अवसर कहाँ से उठेगा। समबुद्धि ऐसा उत्तर नहीं देगी। समबुद्धि कहेगी, ‘मैं बहुत सक्रिय हूँ, मैं प्रण-प्राण से जुटी हुई हूँ, मैं बहुत श्रम कर रही हूँ ये जानने में कि क्या है जो मुझे बन्धन में रखता है। ये समबुद्धि का लक्षण है। ये समबुद्धि का कर्म है।
समबुद्धि निष्काम है। उसे सुख नहीं चाहिए, उसे अपने बन्धनों से मुक्ति चाहिए। अपनेआप से पूछा करिए, आपकी बुद्धि क्या चाह रही है, आपकी होशियारी की दिशा क्या है। समझाने वाले बार-बार बोल रहे हैं, ‘तुम्हें और कुछ नहीं मारता, तुम्हारी होशियारी मारती है।’ समझ में आ रही है बात?
एक चीज़ और देख पा रहे हो? जहाँ सुख की तलाश है वहीं पर दासता भी है। क्योंकि सुख की तलाश पर चलोगे तो कोई-न-कोई मान्यता माननी पड़ेगी। कारण समझना, सुख की तलाश कोई सच्ची खोज तो हो नहीं सकती, क्योंकि सुख कोई सच्ची चीज़ है नहीं। तुम्हें किसी कहानी में यक़ीन करना पड़ेगा। कोई तुमको आकर बता देगा, ‘फ़लाना काम करो तो सुख मिलता है।’ ये क्या है? ये एक कहानी है। तो बस तुम्हें इस कहानी की ग़ुलामी करनी पड़ेगी।
तो इसीलिए सुख की तलाश और मन का संस्कारित होना साथ-साथ चलते हैं। मन का संस्कारित होना माने क्या? मन का किसी कहानी में विश्वास करना। इसको कहते हैं मन का संस्कारित होना। मन का किसी कहानी में विश्वास करना कहलाता है मन का संस्कारित होना, कंडिशंड होना।
कहानी माने क्या? वो जो बस काल्पनिक है। सुख भी क्या है? बस काल्पनिक है। तो इसीलिए जो बुद्धि सुख की तलाश में रहेगी, उसे संस्कारों का पालन करना ही पड़ेगा। और संस्कार सारे यही बताते हैं, ‘ऐसा करो आज, तो वैसा सुख मिलेगा कल।’ ये सारी चीज़ें अब एक होकर के आपके सामने आ पा रही हैं, कि कैसे ये सबकुछ मिला-जुला है? बात समझ में आ रही है या छितरायी हुई है बिलकुल?
तो सुख की खोज और दासता, ग़ुलामी, हम कह रहे हैं, साथ-साथ चलते हैं। सुख की खोज तुम्हारा मुक्त उपक्रम नहीं हो सकता। तुम जब तक बन्धन में हो और ग़ुलाम हो तभी तक तुम्हें ऐसा लगेगा, तुम्हारी बुद्धि को ऐसा लगेगा कि सुख कोई वास्तविक लक्ष्य है। क्योंकि सुख वास्तव में क्या है? एक भ्रम मात्र है। जो भ्रम है उसको वास्तविक मान लेना आवश्यक है, अगर तुम्हें उसकी तलाश में निकलना है, नहीं तो तलाश कैसे करोगे? पहले ही पता है ऐसी कोई चीज़ होती नहीं, और कोई तुमसे कहे कि जाओ उसको लेकर के आओ, उसको भोगकर के आओ, और तुम जान गये हो कि वैसा कुछ होता तो है नहीं, तो अब तुम्हारी खोज में, भोग की तुम्हारी लालसा में जान कितनी बचेगी?
छः टाँग वाला लंगूर होता है? नहीं होता। मैं कहूँ इससे कि तुम छः टाँग वाला लंगूर ले आओ, उससे तुम्हारी जितनी ज़बरदस्त वाली कामनाएँ हैं सब पूरी हो जाएँगी। मेरी बात सुनकर बहुत उत्साहित होगा? होगा? नहीं होगा। क्यों? क्योंकि सबसे पहले ये जानता है कि छः टाँग का लंगूर होता ही नहीं। इसको अगर किसी कहानी का ग़ुलाम बनाना है तो उसके लिए बहुत ज़रूरी है कि इसको सच की जगह सुख दिया जाए, बचपन से ही। इसको घुट्टी ही सच की जगह सुख की पिलायी जाए। फिर तुम इसको कोई भी उल्टी-पल्टी बात बताओगे, ये उसके पीछे-पीछे चल देगा ग़ुलाम की तरह। आपको समझ में आ रहा है?
आप अपनी ज़िन्दगी को देख पा रहे हैं? किस चीज़ ने आपको जकड़ रखा है? आपकी सब पीड़ा का कारण क्या है? आपकी सब पीड़ा का कारण है वो सब कहानियाँ जो आपको बचपन से सुना दी गयी हैं, जिनको आपने सच ही मान लिया है, जिनके आधार पर आप अपना पूरा जीवन चलाये जा रहे हैं। उन्होंने ही कहीं का नहीं छोड़ा हमको। और उन्हीं कहानियों से अर्जुन को मुक्त कराने में श्रीकृष्ण को यहाँ इतनी चेष्टा करनी पड़ रही है।
आसान नहीं होता उन कहानियों से मुक्त होना और वो कहानियाँ सभ्यता-संस्कृति के माध्यम से हमारे भीतर प्रवेश करके हमारा खून ही बन जाती हैं, हमारी रग-रग में वो ही प्रवाहित हो रही होती हैं। ये देख पाना एकदम रोशनी में कि वो सब झूठ था, एकदम झूठ था, मुश्किल है, असम्भव नहीं है। सम्भव है, सम्भव न होता तो गीता न होती। समझ में आ रही है बात?
देखो, यहाँ कोई नहीं बैठा है जिसको सुख के रूमानी गीत रातों में पुकारते न हों। ऐसे ही है। कोई नहीं पुकार रहा, नोइज़ है नोइज़ (ध्वनि), वो भी इलेक्ट्रॉनिक। कोई नहीं बैठा है। समझ में आ रही है बात?
इसीलिए मैं कहा करता हूँ, जिसको तुम दिल कहते हो उसका टूटना बहुत आवश्यक है, और जल्दी-से-जल्दी टूट जाए उतना अच्छा। वो बीमारी की तरह है। उसको जितनी देर तक बचाकर रखोगे उतना बढ़ेगा, इतना बड़ा हो जाएगा फूलकर के दिल। बड़े दिल वाले, दिलदार लोग होते हैं, वो वैसे ही होते हैं जैसे तुम्हारे भीतर कैंसर का ट्यूमर इतना बड़ा हो गया है (हाथ से संकेत करते हुए)।
जिसको तुम दिल कहते हो, लोक-संस्कृति में, वो और क्या होता है? तुम्हारे भीतर के सुख की तलाश को ही तो तुम दिल कहते हो न। सोचकर देखना, कुछ और है? भाँति-भाँति से तुम जिसका पीछा करते हो, उस सुख के भोक्ता को तुम दिल कहते हो, या मन कहते हो।
हमारी आँखों और चेहरों में सच्चाई नहीं होती, कहानी होती है। जैसे किसी ने आपको बता दिया हो कि आप कुछ हैं, जैसे आप लंगूर हैं, या आप भेड़ हैं और आपका मुँह ही भेड़ जैसा हो गया। आपने बहुत यक़ीन के साथ उस बात को मान लिया है जो आपको बता दी गयी है। वो बात आपको दुनिया के बारे में कम बतायी गयी है, वो बात आपको आपके बारे में ज़्यादा बतायी गयी है। इसलिए तो आत्मज्ञान इतना मुश्किल और इतना आवश्यक है। दुनिया को लेकर आप भ्रम में हैं ही इसीलिए क्योंकि आप अपने विषय में भ्रम में हैं।
ये मैंने बहुत अनुभव करा है, जिन लोगों की आँखों से धुँधलका हटने लगता है उनके चेहरे बदल जाते हैं, आँखें दूसरी होने लगती हैं। तुम अपना कोई चित्र देख लेना तीन-चार साल पहले का और अगर ये चार साल तुमने सार्थक बिताये हैं, तो चार साल बाद की कोई तस्वीर देख लेना, अन्तर साफ़ नज़र आ जाएगा। और वो अन्तर तुम्हें ही नहीं नज़र आता, वो अन्तर दुनिया को भी नज़र आता है।
इसीलिए दुनिया बिलकुल ख़ौफ़ में आ जाती है एक आध्यात्मिक आदमी की शक्ल देखकर, ख़ासकर यदि वो आध्यात्मिक आदमी पहले आपके रिश्ते में रहा हो, उससे यदि आप पहले सम्बन्धित रहे हों। आप उससे पहले से सम्बन्धित हैं, आप उसको तीन साल बाद देखें और उसने ज़िन्दगी के बारे में बातें कुछ समझ ली हैं, तो आप उसका चेहरा देखकर चिल्ला उठेंगे। क्योंकि वो एक बिलकुल साफ़-सुथरा, नया और मुक्त चेहरा होगा और आपने रिश्ता बना रखा था गन्दगी से। आप तुरन्त समझ जाएँगे कि वो रिश्ता अब वैध नहीं है। वो रिश्ता अब गया! सामने जो खड़ा है ये व्यक्ति ही दूसरा है। गन्दगी की आपको इतनी आदत होगी कि एक साफ़-सुथरा चेहरा देखकर के आपकी चीख निकल जाएगी। और आप इस बात को बिलकुल पसन्द नहीं करेंगे। समझ में आ रही है बात?
पशु अपना शरीर जीते हैं। और मनुष्य दोगुना अभिशप्त है, हम शुरुआत करते हैं शरीर को जीने से और उसके बाद हम जीते जाते हैं एक घटिया कहानी! एक नकली कहानी है जिसके केन्द्र में एक नकली अहम् बैठा हुआ है। तुम ज़िन्दगी नहीं जी रहे हो, समझो इस बात को, तुम एक कहानी को जी रहे हो। उस कहानी को तुमने इतना सच मान लिया है कि तुम उसे कभी परखते ही नहीं। कभी परखो तो पता चले कि इसमें सच्चाई कहीं नहीं है। एक झूठी चीज़ को बस जिये जा रहे हो, जिये जा रहे हो उसको।
जैसे कोई अभिनेता हो, वो एक अन्तहीन किरदार निभा रहा हो, कभी ख़त्म न होने वाला किरदार। कह रहे हैं, ‘तू जब तक जिएगा इसी किरदार में जिएगा, इसी रोल प्ले में जिएगा तू।’ वो बेचारा आत्मरक्षा के लिए क्या करेगा? तुम उसके मन में थोड़ा प्रवेश करो। तुम्हें कह दिया गया है कि अब तुम्हें जब तक जीना है तुम्हें इसी किरदार में जीना है। अब तुम्हारे लिए सरल क्या है? तुम्हारे लिए सरल ये है कि अगर इसी किरदार को याद रखना है तो मैं उसको भूल ही क्यों न जाऊँ जो मैं हूँ, क्योंकि दोनों को याद रखने से एक साथ बड़ी असुविधा और बड़ी पीड़ा होती है। ‘दोनों को कैसे एक साथ याद रखूँ? अब जब मैं अभिशप्त हूँ ही जीवन भर एक कहानी को जीने के लिए, तो मैं क्यों न अपनी सच्चाई को भुला ही दूँ!’ वही हमने करा है।
हम कहानियों से इतने आक्रान्त हैं, हम कहानियों से इतने पद-दलित हैं कि हमने चेतना के किसी मोड़ पर ये निर्णय ले लिया कि सच्चाई को फिर दफन ही कर देते हैं न, भुला ही देते हैं। जब सच्चाई को कभी अभिव्यक्त ही नहीं होना है, जब सच्चाई को हम कभी जी ही नहीं पाने वाले, तो उस सच्चाई को पूरे तरीक़े से त्याग ही क्यों न दें!
वही हमने करा है। सच्चाई को छोड़ दिया है, कहानी को अपना जीवन बना लिया है। समस्या बस एक छोटी सी है, क्या? सच्चाई छूट नहीं सकती और कहानी कितनी भी बली हो सच नहीं बन सकती।
“दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।”
सच्चाई को छोड़ना चाहते हैं, वो छूटती नहीं। कहानी को जीना चाहते हैं, उसमें तृप्ति मिलती नहीं। यही है दो पाट। आप थोड़ा विचार करना चाहेंगे अपने जीवन की कहानियों पर? सुख छूटने से मत डरिए, विचार करना आसान हो जाएगा। कहानी आपके मन में अड्डा डाले ही ये बोलकर के है कि मैं सुख दूँगी, सुख दूँगी। आपको ये सुख चाहिए नहीं, उसके बाद कहानी को कहानी की तरह देखना सरल हो जाएगा।
आपको वाक़ई लगता है, आप ये जो शर्ट पहनकर या कुर्ता पहनकर यहाँ बैठे हुए हैं आप वही हैं? आपको वाक़ई लगता है आपके चेहरे पर जो भी भाव है वो आपका है? आपको लगता है? ये शरीर और क्या है? सुख की खोज का उपकरण। सुख को इधर-उधर पागलों की तरह तलाशने वाली एक ग्रन्थि, उसको शरीर कहते हैं। शरीर माने जिसको हर समय सुख चाहिए। आपको वाक़ई लगता है आप वही हैं? थोड़ा विचार करिए। मुक्ति की आहटें मिलेंगी।
अब अर्जुन थोड़ी रुचि दिखा रहे हैं, लेकिन रुचि भी अपने ही तल से। कह रहे हैं, ‘लक्षण बताइए केशव, लक्षण बताइए। ये जो आपने जिस समबुद्धि, स्थितप्रज्ञ की बात करी है उसके कुछ चिन्ह बताइए, कुछ लक्षण बताइए। उसका अन्तस् कैसा होता है, इसमें अभी कम रुचि दिखा रहे हैं। उसका व्यवहार, आचरण, दृश्य कैसा होता है, उसमें थोड़ी ज़्यादा रुचि दिखायी है। पर चलो, ये एक अच्छी बात है, शुभ संकेत है कि कुछ उत्सुकता तो जगी। क्या कह रहे हैं?
अर्जुन उवाच स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।२.५४।।
अर्जुन ने पूछा, हे केशव! समाधियुक्त स्थितप्रज्ञ व्यक्ति का क्या लक्षण है? अर्थात् स्थितप्रज्ञ व्यक्ति में कौन-कौन से विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं? स्थितबुद्धि अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्मा में स्थित है? वो कैसी बातें करता है? किस तरह रहता है? और कहाँ-कहाँ विचरण करता है?
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५४
“अर्जुन ने पूछा, हे केशव! समाधियुक्त स्थितप्रज्ञ व्यक्ति का क्या लक्षण है? अर्थात् स्थितप्रज्ञ व्यक्ति में कौन-कौन से विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं? स्थितबुद्धि अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्मा में स्थित है, वो कैसी बातें करता है? किस तरह रहता है? और कहाँ-कहाँ विचरण करता है?”
‘कैसी बातें करता है? किस तरह रहता है? किस तरह विचरण करता है?’ ये सब पूछ रहे हैं कि ये ही बता दीजिए, दिखने में कैसा होता है, कहीं मेरे ही जैसा हो तो!
तो अपनी छवि देख पा रहे हैं? हमें भी तो यही जानना होता है। और इसीलिए जब हम मन्दिरों में मूर्तियाँ भी बनाते हैं तो हमारा इस पर बड़ा ज़ोर रहता है कि दिखती कैसी है। ‘भीतर क्या है’, न हम ये जानना चाहते हैं अपने बारे में, न जानना चाहते हैं अपने आराध्य देवताओं के बारे में। हमें सारा मतलब सिर्फ़ स्थूल शरीर से और खाल से है, ‘दिखता कैसा है!’ क्योंकि शरीर स्थूल होता है न। जो शरीर से तादात्म्य रखने वाली चेतना होती है वो फिर सदा किसी दूसरे के बारे में कुछ शारीरिक तहक़ीक़ात ही करती है। कि जैसे आपसे कोई पूछे कि कृष्ण के बारे में कुछ बताइए। आप कहेंगे, ‘क्या बतायें?’ तो कोई कहे, ‘ऊँचाई कितनी थी, कितने फुट कितने इंच?’ इस प्रश्न से प्रश्नकर्ता के बारे में क्या पता चला? कृष्ण के बारे में ये कोई प्रश्न है, कितने ऊँचे थे, या किस रंग के थे!
लेकिन आप बहुतों को देखिएगा, अपनेआप को कृष्ण-भक्त कहते हैं, वो यही गाते रहते हैं हर समय कि नील वर्णी थे, नील वर्णी थे। नीला रंग-नीला रंग, ये कोई गाने की बात है? नीला हो, गोरा हो, साँवला हो ये कोई केन्द्रीय बात है क्या? मोर-मुकुट! नहीं पहनते मोर-मुकुट तो कोई अन्तर पड़ जाता? लेकिन जो बात वास्तविक और केन्द्रीय है उससे उनको कोई अर्थ नहीं होता, गीता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। मोर पंख से उनको बहुत प्रयोजन है!
मैं छोटा था, मैं देखता था। एक लड़का था, उसके पास कॉमिक्स -ही-कॉमिक्स भरी होती थी। मुझे भी चाहिए होती थी। मैंने उससे दोस्ती करी। मैंने कहा मुझे कॉमिक्स दे। कॉमिक्स उसके पास ज़्यादातर एकदम ही वाहियात वाली। मैं उसके पास से कॉमिक्स लेकर आऊँ। उसके अन्दर से निकले मोर पंख। छोटा सा मोर पंख रखा होता था। मैंने कहा, ‘क्यों है इसमें?’ वो कहता, ‘कन्हैया की याद में!’
मैंने कहा, कन्हैया की इतनी याद — अब समझ में आ रहा है — तो कॉमिक्स क्यों पढ़ रहा है, गीता पढ़ ले! पर पढ़नी कॉमिक्स है और उसमें रखना है मोर पंख। पढ़नी कॉमिक्स है और उसमें रखना है मोर पंख। गीता नहीं पढ़ेंगे! कन्हैया की याद आएगी तो मोर पंख रख लेंगे किसी भी व्यर्थ की किताब में, पुस्तक में, ग्रन्थ में। ये है हमारा साधारण धर्म और हमारी चालू नैतिकता। केन्द्र में नहीं जाना है। लक्षणों में व्यवहार करना है। वैसे ही प्रश्न यहाँ अर्जुन ने पूछ लिया है, ‘लक्षण बताइए, लक्षण बताइए।’
तो कृष्ण कहते हैं, पचपनवाँ श्लोक में, श्री भगवानुवाच प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।२.५५।।
कृष्ण कहते हैं कि आत्मा में ही अर्थात् बाहरी विषयों से हटकर स्वरूप के आनन्द में सन्तुष्ट रहकर जब व्यक्ति मन की सभी कामनाएँ त्याग देता है तो उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५५
पूछा कुछ और था अर्जुन ने और उत्तर कुछ और दे दिया। वो पूछ रहे थे, ‘कैसा होता है? कैसा दिखता है? कहाँ विचरण करता है? क्या खाता है? क्या पीता है? क्या बोलता है?’ वो ये सब पूछ रहे थे। उन्होंने बोल दिया, ‘जिसकी बुद्धि आत्मा में स्थित रहकर सब कामनाओं को त्याग देती है उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं।’
और अर्जुन देख रहे हैं (अचम्भित मुद्रा दर्शाते हुए), ‘नहीं, कुछ और पूछा था।’ वो कह रहे हैं, ‘मैं तो यही बताऊँगा जो असली है। तुम क्या चाहते हो तुमको क्या बताऊँ? कि आँखों से एक नीली आभा निकलती है? क्या बताऊँ, किस तरह विचरण करता है? पृथ्वी से आठ अंगुल ऊपर उठकर विचरण करता है, ये बताऊँ?’ स्थितप्रज्ञ हो गया है न! तो उसके चरण भूमि पर नहीं पड़ते। वो भूमि से थोड़ा ऊपर-ऊपर विचरण करता है। पानी पर भी चल देता है। जब चाहता है तो ऐसे-ऐसे करके फुर्र उड़ जाता है।
हमारा मन इस तरह की बातें सुनने को बहुत उत्सुक रहता है क्योंकि ये सब बातें, समझो, स्थूल हैं, देह हैं, देह हैं। लड़ाई बस इन दोनों के बीच में है — प्रकृति और आत्मा। तुम अहम् हो, तुम्हें निर्णय करना है कि प्रकृति चाहिए या आत्मा चाहिए। आत्मा अतिशय सूक्ष्म है, प्रकृति स्थूल है। इसलिए जो कुछ स्थूल होता है वो तुम्हें बहुत आकर्षित करता है। जो कुछ इन्द्रियगत होता है उसकी ओर खिंचे चले जाते हो क्योंकि वो प्रकृति से आ रहा है।
प्रकृति पूरा ज़ोर लगा रही है तुम्हें खींचने का और प्रकृति का ही पलड़ा भारी है, क्योंकि चेतना उठी तो प्रकृति से ही है। उठी प्रकृति से है, जाना उसे आत्मा की ओर है। ये एक असमान युद्ध है, जिसमें ज़्यादा सम्भावना जीतने की प्रकृति अर्थात माया की ही है। शुरुआत से ही खेल जैसे प्रकृति को जिताने को ही खेला जा रहा हो। आरम्भ से ही पलड़ा एक ओर को झुका हुआ है। अब देखना ये है कि प्रकृति जीतेगी या प्रेम।
प्रकृति तुम्हें पकड़कर रखती है भय के द्वारा, मोह के द्वारा, प्रमाद, पुरानी आदतों के द्वारा और सत्य तुमको पुकारता है प्रेम गीत गाकर के। तुम्हें तय करना है कि प्रेम जीतेगा या प्रमाद। ज़्यादातर कौन जीतता है? प्रमाद ही जीतता है। प्रमाद इतना भारी है कि श्रीकृष्ण को भी इतना यत्न करना पड़ रहा है अर्जुन के साथ! पहली बात तो बाक़ी जितने खड़े हुए हैं, हज़ारों-लाखों, उनके साथ तो यत्न भी नहीं किया जा सकता। वहाँ कृष्ण भी जानते हैं कि इनके साथ प्रयत्न भी करने का कोई लाभ नहीं। खेलना ही मत शुरू करो। यहाँ तो बाज़ी पहले ही हारे हुए हैं।
एक अर्जुन दिख रहे हैं कि यहाँ कुछ गुंजाइश है। खूब सिखाया-समझाया जाए तो कुछ सम्भावना है कि एक व्यक्ति शायद जान जाए। लेकिन वो एक व्यक्ति भी टेढ़ी खीर है। तो अपनी हालत सोच लो फिर!
पहली बात तो हज़ारों-लाखों में कोई एक है जो कुछ पात्रता रखता है और दूसरी बात, जो पात्रता रखता भी है उसके साथ भी गुरु को बड़ी जी-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। उसके बाद भी कुछ निश्चित नहीं होता कि बात बन ही जाएगी। तो सोचो कि तुम कहाँ खड़े हुए हो! कितने पानी में हो, भैया? तुम्हारे बचने की सम्भावना कितनी है? आत्मविश्वास से तो भरपूर हो। किसी प्रकार की आकुलता तो आपकी आँखों में दिखाई देती नहीं। ऐसा कोई भय तो चेहरे पर है नहीं कि हालत हमारी बहुत ख़राब है, माया लीले ले रही है, कोई बचाओ! इस तरह का कोई बोध तो आपके जीवन में दिखाई दे नहीं रहा है। आत्मविश्वास से भरपूर जीवन जी रहे हो। कहाँ से आता है इतना यक़ीन अपने ऊपर? इसी को तो जादू कहते हैं, तिलिस्मी माया!
जान जोख़िम में, जन्म गँवाना लगभग निश्चित, और आश्वस्ति पूरी है कि हम ठीक हैं! ‘अपने हिसाब से, अपनी कामनाओं के हिसाब से, अपनी भ्रमित बुद्धि के हिसाब से, अगली चाल चल लेंगे। हम ठीक हैं।’ जैसे कोई चींटी, जिस पर काल का भारी जूता बस पड़ने ही जा रहा हो, और तुमको दिख रहा है, वो भारी जूता है जो अब चींटी पर पड़ने ही जा रहा है। और वो कामनाओं का उत्सव मना रही है, घर बसाने की तैयारी कर रही है, एक नया बिल ख़रीदा है उसका अग्रिम भुगतान करके आयी है। और जब ये सब हो रहा है तो तुम देख रहे हो, धीमी गति से, स्लो मोशन में, वो एक भारी जूता है जो आ रहा, आ रहा, आ रहा, और चींटी को पर लगे हुए हैं!
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।२.५६।।
दुखों में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों में जो आकांक्षा-रहित है, आसक्ति, भय, क्रोध से रहित है, ऐसे व्यक्ति को स्थितधिय या स्थितप्रज्ञ या स्थितबुद्धि मुनि कहते हैं।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५६
ये आपके सामने आये शब्द तो इनको अलग-अलग मत मानिएगा। स्थितबुद्धि, स्थितधिय, स्थितप्रज्ञ एक ही बात। सुख की आकांक्षा नहीं और दुख का डर नहीं। क्या लिखा था? “न सुख की आस, न दुख का डर, जो उचित है वो चुपचाप कर।” बस यही है स्थितप्रज्ञ।
अच्छा, ध्यान रखना, सुख से भयभीत नहीं है, दुख से भयभीत नहीं है तो सुख से भी भयभीत नहीं है। सुख की आकांक्षा नहीं कर रहा है इसका मतलब ये भी नहीं है कि वो ज़बरदस्ती दुख की आकांक्षा कर रहा है। मन तो द्वैत में चलता है न, एक ध्रुव से कूदकर के तुरन्त दूसरे पर पहुँच जाता है। और बहुत आध्यात्मिक लोगों ने ये भी अर्थ लगा लिया और बोले कि सुख की आकांक्षा नहीं करनी है माने दुख की आकांक्षा करनी है, तो वो बलात् अपनेआप को दुख देते हैं। खूब ठंड होगी उसमें एक लंगोटी पहन कर घूम रहे हैं, ‘हम आध्यात्मिक आदमी हैं न!’ खाना-पीना ठीक से नहीं खाएँगे, वज़न ज़्यादा नहीं है, कमज़ोरी बहुत है। क्यों? ‘हम आध्यात्मिक आदमी हैं न! खाना खाना तो सुख का लक्षण है।’
सुख की आकांक्षा नहीं है इसका अर्थ ये नहीं है कि दुख की आकांक्षा है। इसका अर्थ ये है कि आकांक्षा ही नहीं है, न सुख की, न दुख की। और दुख का डर नहीं है इसका मतलब ये नहीं है कि सुख का डर है। सुख यदि आ गया तो आ गया। ठीक वैसे जैसे दुख के आने पर हम निरपेक्ष रहेंगे, आ गया तो आ गया, क्या करें, आ गया। वैसे ही सुख के आने पर भी हम निस्पृह-निरपेक्ष रहेंगे। दुख आ गया, हमने कोई अपराध नहीं करा था, प्राकृतिक बात है। सुख भी आ गया, हमने कोई अपराध नहीं करा है कि सुख आ गया। ग्लानि कैसी, लज्जा कैसी यदि सुख आ गया है तो! आ गया है। हमने कर्म कर-करके नहीं बुलाया था, संयोगवश, अकस्मात् आ गया है। आ गया तो आ गया।
यदि सुख के प्रति आप निरपेक्ष नहीं हो पाओगे तो दुख के लिए भी नहीं हो पाओगे। और ये कोई हल्की बात नहीं है, समझना। ये तो हम जानते ही हैं भली-भाँति, समझाने के ज़रूरत नहीं, कि हर आदमी दुख से डरता है। अब वो बात सुनो जो शायद हम नहीं जानते। ज़्यादातर लोग सुख से भी बहुत डरते हैं। कहेंगे, ‘ये कैसी बात! अभी तक तो आप बता रहे थे कि मन सुख के पीछे भागता है, कामना सुख की अनुगामिनी होती है। बुद्धि आमतौर पर लगातार सुख को विषय बनाती है। अब आप क्या कह रहे हैं कि आम आदमी सुख से भी डरता है!’
हाँ, हम दुख से तो घबराते ही है, हम सुख से भी घबराते हैं। वज़ह समझना, जो विषय तुमको सुख का प्रलोभन और न्यौता दे रहा हो तुम अगर उसके बिलकुल पास पहुँच जाओ तो तुम सुख से मुक्त हो जाते हो। तो ये हमारी एक अन्दरूनी साज़िश होती है कि जो सुख के लिए बुला रहा हो, दूर-दूर से उसका मनन करते रहो, उसकी कल्पना करते रहो। सुख के यथार्थ को कभी पास जाकर टटोलकर, परखकर जानो मत।
आप कृष्ण का अगर व्यक्तित्व देखें — हालाँकि मैं व्यक्तित्वों की आमतौर पर बहुत चर्चा करता नहीं, पर इस जगह उसकी कुछ उपादेयता है इसलिए कर रहा हूँ — आपको ऐसा नहीं लगेगा कि ये व्यक्ति सुख से घबराता है। न सुख से घबरा रहे हैं, न रथ से घबरा रहे हैं, न मुकुट से घबरा रहे हैं, न राजनीति से घबरा रहे हैं, न युद्ध से। दुख के प्रति भी यही भाव रखना है कि ये है जो इतना मुझे व्यथित करने को उतावला है, देखूँ तो ये है क्या! सुख के प्रति भी वही भाव, ‘ये इतना उतावला है, ये है क्या?’
ये व्याधि आध्यात्मिक लोगों में ज़्यादा पायी जाती है। जिन्होंने कभी कहीं थोड़ा आध्यात्मिक पर्यटन कर लिया होता है, दो-चार दिन या दो-चार महीने का, उनमें सुख को लेकर के लज्जा का भाव पैदा हो जाता है। अब ये दूना बोझ है। दुख को लेकर के तो आप व्यथित हैं ही, सुख को लेकर के भी आप लज़्जित हो गये। माने अब आप न दुख के निकट जाओगे, न सुख के निकट जाओगे।
“दुई पाटन के बीच में”, पुनः पुनः। अब दो अन्धी ताक़तें हैं और दोनों आपको सता रही हैं। दुख की ताक़त भी आपको सता रही है, उसको आप जानते नहीं, समझते नहीं, प्रतिकार क्या करोगे! और सुख की लालच भी आपको सता रही है, उसको भी आप जानते नहीं, समझते नहीं, प्रतिकार क्या करोगे! जिसको तुम जानते ही नहीं उससे लड़ सकते हो? लड़ सकते हो? जब तुम सुख को जानते नहीं तो सुख के आघात को सहन कैसे करोगे? ‘आघात’ कह रहा हूँ। सुख का भी आघात ही होता है, वो तो विक्षिप्त ही कर देता है। बौरा ही तो जाते हो सुख में, और क्या करते हो!
तुम्हें कोई पीट रहा हो, सबसे पहले तुम्हें पता क्या होना चाहिए? ‘कौन पीट रहा है, कहाँ खड़ा है?’ मिस्टर इंडिया आयी थी फ़िल्म, उसमें वो अदृश्य होकर पीटता है तो जीत जाता है। जो तुम्हें दिखाई नहीं देगा, जिसकी जगह तुमको नहीं पता, जिसका अगला हथकंडा, दाँव-पेंच तुम जानते नहीं, उससे निपटोगे कैसे? सुख का कुछ पता भी है?
‘नहीं, हम तो कल्पना करते हैं। हम सुख की कल्पना में सुख लेते हैं!’ गज़ब खिलाड़ी हैं यार! जिसकी कल्पना करते हो कभी जाकर टटोला है? कुछ छान-बीन, कोई अनुभव, कोई जिज्ञासा? ‘नहीं, वो करने में लज्जा आती है।’ कल्पना करने में लज्जा नहीं आती? ‘नहीं, वो किसी को पता नहीं चलेगी न! भीतर-ही-भीतर लड्डू बनाएँगे और चुपचाप किसी को बिना बताये खा जाएँगे। किसको पता चला? और बाहर जब लड्डू दिखेगा तो बोलेंगे धिक्कार-धिक्कार!’
सुख-दुख दोनों के प्रति समभाव। आत्मा बोध-स्वरूपा है। आत्मा जानती है, आत्मा को यूँही सर्वज्ञ नहीं कहते। आत्मा दुख को भी जानती है, आत्मा सुख को भी जानती है। आत्मा के लिए दुख बड़ी बात नहीं, आत्मा के लिए सुख भी बड़ी बात नहीं। जब आत्मा कह रहा हूँ तो आशय है आत्मज्ञ यानी स्थितप्रज्ञ। ज्ञानी व्यक्ति दुख में कुम्हला इसीलिए नहीं जाता क्योंकि वो सुख में फूल भी नहीं जाता। वो दुख से इसलिए नहीं डरता क्योंकि वो सुख से भी डरता नहीं है। सुख और डर साथ-साथ चलते हैं। सुख जहाँ भी होता है तुम्हें यही लग रहा होता है कि क्या पता वहाँ न हो तो! मिलने के बाद छिन गया तो!
एक कवि ने तो कह भी दिया है कि सुख और दुख में चयन करना तो तुम दुख को चुनना। पूछे, ‘क्यों?’ बोले, ‘क्योंकि दुख जाएगा तो दुख नहीं होगा।’ सुख के साथ तो लगातार डर लगा रहता है, अभी ये जाएगा तो दुख आ जाएगा। सुख और डर साथ-साथ चलते हैं।
स्थितप्रज्ञ को सुख का डर नहीं होता। सुख का डर नहीं होता माने क्या? सुख भोगेगा? एकदम लोट जाएगा उसमें लथपथ? माने सुख के आघात में वो अपनी सम स्थिति खो नहीं देता है। कितना भी सुख हो, वो सजग है, वो अडिग है, वो केन्द्रस्थ है। वो जागरूक है, वो चैतन्य है। वो उत्सुक है, वो जान रहा है। वो बह नहीं गया। वो मिट नहीं गया। वो बेहोश नहीं हो गया।
जानने का अर्थ प्रतिरोध नहीं होता। जानने का अर्थ तटस्थता होता है। जिसका तुम प्रतिरोध कर रहे हो उसके साथ तुम संलिप्त हो गये। जहाँ तुम संलिप्त हो गये वहाँ संज्ञान की सम्भावना तुमने न्यून कर दी। अब ये अजीब बात हो गयी! सुख से डरना भी नहीं है और सुख से संलिप्त भी नहीं होना है! ये तटस्थता क्या नयी चीज़ आ गयी!
सुख आ रहा है, मन पर आघात कर रहा है, तुम देख रहे हो, तुम पूरी बात समझ रहे हो, ये हो क्या रहा है, बिना डरे। तुम्हारा क्या होगा सुख के आघात में, ये तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं है। यही तो निष्कामता है। तुम्हारे लिए आवश्यक क्या है? जानना। ‘मुझे जानना है। मेरा क्या होगा जानने के बाद, मैं नहीं जानता, न मुझे जानना है। मुझे तो बस अभी जानना है।’
जानना ही सर्वोच्च बात है और यदि वो सर्वोच्च है तो कौन चिन्ता करे उसके परिणाम या दुष्परिणाम की! जो सबसे ऊँचा है अगर उसका भी दुष्परिणाम आता है तो आने दो न, आने दो। फिर तो ये अस्तित्व ही विकृत है। चिन्ता करके भी फिर क्या होगा? और यदि सर्वोच्च वास्तव में सर्वोच्च है, यदि बोध ही सर्वोच्च है तो जानने के परिणाम की हमको फिर परवाह नहीं है, बोध के परिणाम की हमको चिन्ता नहीं।
ये आँखें, ये आँखें हमेशा प्रकाशित रहनी चाहिए। जो कुछ भी हो रहा हो तुम्हारे साथ, ये हैं जो देख रही हैं। मैं देख रहा हूँ। मैं दृष्टा अभी भी हूँ। हाथ कट रहा है मेरा, मैं देख रहा हूँ। मन बहुत अभी सुख में, भोग में लिप्त होने को आतुर हो रहा है, मैं देख रहा हूँ। आँखें बहुत विशेष होती हैं। तुम्हारे हाथ और पशु के हाथ में बहुत अन्तर नहीं है। तुम्हारे बाल और पशु के बाल में बहुत अन्तर नहीं है। तुम्हारी खाल और पशु की खाल में भी बहुत अन्तर नहीं है। तुम्हारी आँख और पशु की आँख में बहुत अन्तर है, बहुत।
अभी छान्दोग्य उपनिषद् का पाठ कर रहे थे। वहाँ ऋषि बोलते हैं कि वो जो आँखों के केन्द्र में है उसी को आत्मा कहते हैं। आँख हमेशा सजग होनी चाहिए। आत्मा यहीं पर है। तथ्यगत भी है ये बात और प्रतीकात्मक भी। जब मैं देखना कह रहा हूँ तो उससे मेरा आशय मात्र भौतिक दृष्टि से नहीं है। मेरा आशय बोध से है, और भौतिक दृष्टि से भी है। नशे में हो कोई व्यक्ति, उसका हाथ देखकर बता पाओगे नशे में है? कान देखकर बता पाओगे? नाक देखकर? पर अगर तुम नशे में नहीं हो तो ज़रा सा उसकी आँख में देखोगे और बता दोगे ये नशे में है। आँखें बहुत विशेष होती हैं। ये हाेश का प्रतिबिम्ब होती हैं।
किसी ने कहा था, ‘फेस इज़ द इंडेक्स ऑफ़ द माइंड’ (चेहरा मन का सूचकांक होती है), ग़लत है बात। द आईज़ आर द इंडेक्स ऑफ़ द माइंड (आँखें मन का सूचकांक/दर्पण होती हैं)। तत्वज्ञान को इसीलिए हमारे यहाँ दर्शन कहा गया, दर्शन। श्रवण भी बहुत ऊँची बात है, पर दर्शन अनूठा है। देखना कभी नहीं छूटना चाहिए। सुख आया, सुख को देखा। मैंने देखा है। मैंने पूरा देखा है। मैंने उस मन को भी देखा है जिसको सुख आया और सुख में उस मन की क्या हालत होती है, मैंने उसको भी देखा है। दुख आया, मैंने दुख को भी देखा है। मैंने दुख को भी देखा है। बाहर से जो दुख के कारक थे उनको भी देखा, और दुख का जिस मन पर आघात हुआ, मैंने उस मन को भी देखा। मैंने देखा है।
जो देख रहा है वो आत्मज्ञ है, जो देख रहा है वो आत्मस्थ भी है, क्योंकि मात्र आत्मा ही है जो देखती है। मन तो लिप्त रहता है। या ऐसा कह लो कि मन जब बहुत शुद्ध हो जाता है तो लिप्तता से आगे बढ़कर दृष्टा हो जाता है। समझ में आ रही है बात?
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।२.४७।।
जो सभी विषयों में आसक्ति-शून्य है, विविध शुभ या अशुभ हितकर या अहितकर विषय प्राप्त करके भी जो आनन्दित नहीं होता और असन्तोष भी नहीं प्रकट करता, उसका ज्ञान प्रतिष्ठित हुआ है, अर्थात् वही स्थितप्रज्ञ है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५७
अर्जुन को उत्तर देते हुए — अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के लक्षण पूछे हैं — कहते हैं, “जो सभी विषयों में आसक्ति-शून्य है, विविध शुभ या अशुभ हितकर या अहितकर विषय प्राप्त करके भी जो आनन्दित नहीं होता और असन्तोष भी नहीं प्रकट करता, उसका ज्ञान प्रतिष्ठित हुआ है, अर्थात् वही स्थितप्रज्ञ है।”
न तो ये कह रहा है कि बहुत अच्छा हो गया मेरे साथ, न ये कह रहा है कि बहुत बुरा हो गया मेरे साथ। बहुत कुछ होता है उसके साथ। जितना एक आम आदमी के साथ होता है उससे कहीं ज़्यादा होता है स्थितप्रज्ञ के साथ क्योंकि स्थितप्रज्ञ, चूँकि प्रकृति से अलग है, अनूठा है, अनछुआ है, इसलिए वो प्रकृति से घबराता नहीं। सारी गति प्रकृति में होती है। वो प्रकृति से घबराता नहीं इसीलिए वो सारी गति के मध्य में विराजता है। जितनी गति एक आम व्यक्ति देखता है उससे कहीं ज़्यादा गतिशील जीवन, घटना भरा जीवन, एक स्थितप्रज्ञ जीता है। लेकिन इतनी गति देखकर के भी वो स्वयं अचल रहता है।
आम आदमी तो अनुभवों से भी घबराता है, क्योंकि डरता है अनुभव कहीं मुझे तोड़-ताड़ न दे! स्थितप्रज्ञ अनुभवों से नहीं घबराता। वो एक बहुत क्रियाशील जीवन जीता है, गति, घटनाओं, अनुभवों से भरपूर। वो एक जन्म में न जाने कितने जन्म जी जाता है। उसके न जाने कितने चेहरे होते हैं, क्योंकि वो किसी भी चेहरे से घबराता नहीं है। हम तो घबराते हैं। आपने एक चेहरा पकड़ रखा है जो आपकी कहानी ने आपको बता दिया है कि अच्छा है, शुभ है, हितकर है, लाभप्रद है, सुखदायी है। आप वो चेहरा पकड़े हैं। दूसरा कोई चेहरा आप पहन ही नहीं सकते, आप डर जाएँगे।
कृष्ण एक क्षण में सखा हैं, दूसरे में गुरु हैं। कभी प्रेमी हैं, कभी दार्शनिक हैं। कभी योद्धा हैं, कभी रणछोड़ हैं। हमारे लिए असम्भव है। हाथों में कभी मुरली है, कभी चक्र है। आप या तो संगीतज्ञ होंगे, मुरली वादक या आप शस्त्रधारी हो सकते हैं, चक्रधर। आप दोनों होकर दिखाइए। आप कितने संगीतज्ञों को जानते हैं जो शस्त्र संचालन में भी निपुण हैं, बताइए। और बराबर की निपुणता है, छोटी-मोटी नहीं।
हम सूखा जीवन जीते हैं, डरा हुआ जीवन, जिसमें हम बहुत गतिविधि, बहुत घटनाएँ होने भी नहीं देते। डर लगता है कि कहीं ऐसा हो गया तो हम मिट ही न जाएँ! जो आत्मा में स्थित है वो सबकुछ होने देता है। वो कहता है सब होने दो, हमारा कुछ नहीं बिगड़ने का। वो बहुत कुछ जी जाता है। हमने कहा, चन्द वर्षों में वो न जाने कितने जीवन जी जाता है! उसके अनगिनत चेहरे हो सकते हैं क्योंकि कोई चेहरा उसे प्रिय नहीं है और किसी चेहरे से उसे डर नहीं।
बताओ, अभी प्रकृति का कौनसा प्रकरण खड़ा हुआ है, हम उसके अनुसार एक चेहरा पहन लेंगे। बताओ, बताओ तो। हम कोई एक व्यक्तित्व धारण करने की मजबूरी में हैं ही नहीं। हम बहुत कुछ हैं। उसके लिए कुछ, उसके लिए कुछ, उसके लिए कुछ, उसके लिए कुछ और इन सबके लिए जो कुछ, उन सबके पीछे ‘ना कुछ’।
एक द्रौपदी के कृष्ण हैं, एक अर्जुन के कृष्ण हैं, एक कर्ण के भी कृष्ण हैं, एक कुन्ती के कृष्ण हैं। एक सुभद्रा के भी कृष्ण हैं, एक बलराम के भी कृष्ण हैं। कृष्ण कुछ भी हो सकते हैं। उन्हें बदलने से डर नहीं। जो कुछ बदल रहा है उससे उन्हें कोई डर नहीं क्योंकि उससे उनकी कोई लिप्तता नहीं।
क्या है जो बदल रहा है लगातार? प्रकृति, वो उनके चारों ओर है। कृष्ण उसके क्या हैं? दृष्टा। वो कह रहे हैं, ‘सब बदल रहा है, बदलने दो। जब सबकुछ प्राकृतिक है, यह देह भी प्राकृतिक है, चेहरा भी प्राकृतिक है। सारे किरदार, सब प्राकृतिक हैं, सब बदलने दो। हमें क्या डर है! बताओ अभी कौनसे वस्त्र धारण करने हैं, हम करेंगे। बताओ, अभी कौनसी भाषा में बात करनी है, हम करेंगे। हम अटक थोड़े ही गये हैं!’
‘और मैं कोई भी वस्त्र धारण कर लूँ, मैं वो हूँ जो किसी वस्त्र में समा नहीं सकता। मुझे वो मत समझ लेना जो मैं तुम्हें दिख रहा हूँ। अभी मैं तुम्हें उपदेश दे रहा हूँ, मैं उपदेशक नहीं हो गया।’ कुरुक्षेत्र में बीच रण खड़े हुए रथ पर गुरु रूप में जो कृष्ण हैं, कृष्ण उससे बहुत आगे के हैं। समझ में आ रही है कुछ बात?
प्रकृति से एक विशेष तरह का सम्बन्ध रखने को अध्यात्म नहीं कहते, कि सांसारिक लोग हैं वो एक तरह का सम्बन्ध रखते हैं प्रकृति से, माने संसार से और आध्यात्मिक आदमी प्रकृति से दूसरे तरह का सम्बन्ध रखता है। नहीं, इसको अध्यात्म नहीं कहते।
प्रकृति से पूर्ण मुक्ति का अर्थ ही यही है कि अब आप किसी भी तरह का सम्बन्ध रख सकते हो, और वो सारे सम्बन्ध संयोगवश होंगे। और संयोगवश जो कुछ भी हो रहा होगा आपको उससे आपत्ति नहीं होगी। बस एक है जिसको आप संयोगों के हवाले नहीं करोगे, और वो है आत्मा। कि इसको हम प्रकृति के ज्वार-भाटा को नहीं सौंप सकते। इससे तो प्रेम है। इसको तो पकड़ कर रखते हैं। इससे तो चिपककर रहते हैं। इसमें तो हम स्थापित होकर रहते हैं। इसमें तो हमने आसन कर लिया है। बस एक यही है जो निर्-अपवाद रहेगा हमारे पास। बाक़ी सबकुछ तो आवत-जावत रहे, हमें कोई आपत्ति नहीं।
जो चाहिए है उसको पकड़ रखा है, बाक़ी कुछ भी हो रहा हो, हमें आपत्ति क्या! हमें आशंका क्या! न हमें बहुत अब मिल सकता है, न बहुत हमारा खो सकता है। बाक़ी जो कुछ भी चल रहा होगा वहाँ पर तो हम बस अभिनय कर लेंगे। और केन्द्र में स्थापित होकर जब आप अभिनय करते हो, केन्द्र में स्थापित होकर जब अपना किरदार निभाते हो तो उस अभिनय में बात दूसरी होती है। फिर आपका जो भी किरदार होता है उसके माध्यम से आत्मा मुखरित होती है। समझ में आ रही है बात?
प्रकृति का, संसार का, त्याग करने की बात नहीं हो रही है। त्याग करना है प्रकृति में अपने बन्धनों का। और वो बन्धन टूट जाते हैं जब एक बन्धन को आप चुन लेते हो। एक बन्धन चुन लो। वो एक बन्धन तुम्हारे सारे बन्धनों को तोड़ देगा। उस एक बन्धन के प्रति कभी झूठे मत होना। कभी बेईमानी मत कर देना। वहाँ निष्ठाहीन मत हो जाना। एक प्रेम के प्रति सच्चे रहो। वो एक प्रेम तुम्हें सौ तरह के झंझटों से मुक्त कर देगा। सारे वरदान उसी प्रेम से हैं। छान्दोग्य उपनिषद् पुनः याद आ रहा है, ब्लेसिंग्स ? ‘जो आत्मा में स्थित है, मात्र वही उपकृत है, मात्र वहीं अनुग्रहीत है, मात्र वही ब्लेस्ड है।’
एक सम्बन्ध सही बना लो, बाक़ी सब सम्बन्धों में पूरी छूट मिल जाती है। और उस पूरी छूट का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता, नहीं होता। क्योंकि वो जो पहला तुमने सही सम्बन्ध बना लिया है, वो सही सम्बन्ध ही तुम्हें उच्छृंखल नहीं होने देगा। उस पहले सही सम्बन्ध के बाद तुम्हारे बाक़ी जितने सम्बन्ध बनते हैं, उनमें धर्म होता है, वो आध्यात्मिक सम्बन्ध होते हैं।