दुःख में याद रहे, सुख में भूले नहीं
दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, तो दुःख काहे को होय।।
संत कबीर
प्रश्न: आपने कई बार कहा है कि सुख, दुःख अलग-अलग नहीं, पर यहाँ पर कबीरदास कहते हैं कि सुख के क्षणों में याद करने से दुःख से बचना हो जाएगा। उसका आशय क्या है?
वक्ता: दुःख में क्या याद आता है? दुःख में क्या सत्य खुल जाता है? किसी दुखी आदमी को देखिए, उसकी आँखों में अज्ञान होगा, चिंता होगी, व्याकुलता होगी, अभीप्सा होगी, कामना होगी, आसक्ति होगी, बंधन होंगे, चोट होगी; सत्य होगा क्या? सत्य यदि होता तो क्या आँखों में दुःख के आंसू होते? ठीक कहा गया है कि “दुःख में सुमिरन सब करै” पर ये कौन सा सुमिरन है जो दुःख के काल में होता है? सत्य का सुमिरन होता है क्या?
दुःख में सुख का ही तो स्मरण करते हो। दुःख में सत्य को नहीं याद करते, कृपा करके ये भूल मन से निकाल दो कि “दुखी व्यक्ति सत्य का आकांक्षी हो जाता है।” जब तुम बहुत दुखी होते हो तो तुम सुख को याद करते हो, द्वैत के एक सिरे पर जा कर के दूसरे सिरे से तुम्हारी दूरी सर्वाधिक हो जाती है, तुम्हें उसकी याद सताने लगती है, बहुत दूर हो जाते हो। जैसे पेंडुलम एक छोर पे चला जाए तो उस छोर पे उसकी दूसरे छोर से सर्वाधिक दूरी होती है।
दुखी आदमी को सुख के क्षण खूब याद आते हैं, खूब स्मृतियों में डोलता है। अतीत की साधारण स्मृतियाँ भी स्वर्णिम स्मृतियाँ लगने लगती हैं, अतीत के साधारण पल भी ऐसे लगने लगते हैं कि “वाह! कितना सुख था” और सुख था…