दुःख छूटता क्यों नहीं?
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प्रश्नकर्ता (प्र): अहंकार ही है अगर स्वयं को जानने वाला, तो वो स्वयं को क्यों गिराएगा? ये तो अहंकार ही कहता है कि ये सब बेकार है, मैंने जान लिया, अब इसको गिरा दो। तो अहंकार स्वयं को क्यों गिराएगा?
आचार्य प्रशांत: कष्ट किसको हो रहा है?
प्र १: सर, अगर गिरा भी दिया तो अहंकार तो और ज़्यादा बढ़ जाएगा कि ‘मैंने’ गिरा दिया।
आचार्य: किसको गिराएगा अहंकार?
प्र १: जिससे समस्या है।
आचार्य: और अहंकार क्या है?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): स्वयं एक समस्या ।
प्र २: अहंकार अपने आप को क्यों गिराएगा?
आचार्य: कष्ट किसको हो रहा है?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): अहंकार को।
आचार्य: कोई तुममें बड़ा परमार्थ नहीं जाग जाता है कि तुम गिराना चाहते हो। हाथ में गरम कोयला है, उसे कोई क्यों गिराता है?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं गिराया तो हाथ जल जाएगा।
आचार्य: क्यों अहंकार को गिराना चाहते हो? इसलिए कि दुनिया का कल्याण होगा? विश्वशांति हेतु? हाथ में जलता हुआ कोयला है, उसे क्यों छोड़ते हो? हाथ जल रहा है, तुम्हारा ही जल रहा है।
प्र २: पकड़ भी तो हमने ही रखा है।
आचार्य: जल भी रहे हो। इतने अचरज से मत देखो । कल कितने कीड़े देखे थे, रात में। वो क्या करने आ रहे थे? क्या करने आ रहे थे?
सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जलने आ रहे थे, (हँसते हुए) दीवार में सिर मारने, रोशनी में सिर मारने।
आचार्य: तो ऐसे मत देखो। पता है फिर भी कर रहे हैं। जानकारी है, उसकी समझ नहीं है। कर रहे हैं, ठीक है। कोयला है हाथ में, हाथ जल रहा है, फ़िर भी पकड़े हुए हैं। सबकी कहानी यही तो है।
कहानी ये नहीं है कि हाथ में जलता कोयला पकड़ रखा है और छोड़ने को राज़ी नहीं है। कोई है यहाँ पर ऐसा जिसकी ये कहानी न हो? और ऐसा भी नहीं है कि तुम्हें पता नहीं है कि ये कोयला है। सबको अच्छे से पता है। कोयला पकड़ के बैठे हो। अपने क़त्ल का सामान हम साथ ले कर फिरते हैं ।
प्र २: सर, छोड़ने की इच्छा भी हो तो भी हम आदत से मज़बूर होते हैं।
आचार्य: हम आदत से मज़बूर हो जाते हैं। तभी कहा था ना कि मन का भाव बदलो। मन में ये अहंकार का भाव गहराई से बैठ गया है। मन में यह भाव गहराई से बैठ गया है। और उसने अन्दर आकर क्या कर लिया है? दरवाज़ा बंद कर लिया है। जीवन कष्ट है और कोयले को छोड़ा जा सकता है, तुमको ये संभावना ही नहीं दिखती। तुमको ये सम्भावना ही नहीं दिखती…