दुःख को समझना ही दुःख से मुक्ति है
प्रश्नकर्ता: मन लगातार छवियाँ बनाता रहता है, लगातार धारणाएँ बनाता रहता है। और हम कितनी भी कोशिश कर लें असंस्कारित होने की, पर हो नहीं पाते। कुछ न कुछ हिस्सा रह ही जाता है तो इसके बारे में क्या किया जाए?
आचार्य प्रशांत: देखिये, एक बात ये समझिएगा कि प्रभावित होने वाला और ये अनुभव करने वाला कि, “मैं प्रभावित हुआ हूँ,’’ वो एक ही हैं। थोड़ा इसमें गौर से जाइएगा, वरना बात समझ में नहीं आएगी। हम हमेशा ये कहते हैं कि, “मैं किस तरीके से तनाव कम करूँ अपना, दुःख अपना कम करूँ?” आपको दुःख नहीं सताता है, आपको दुःख का अनुभव सताता है। या ये कहिये कि जिसको आप दुःख कहते हैं, वो दुःख का अनुभव है। जो दुखी होने वाला मन है, वो ही निर्णयता भी है कि दुःख कितना हुआ है। ये सब बातें वस्तुगत नहीं है। आप नाप नहीं पाओगे कि कितने यूनिट्स दुःख है मुझे। दुःख, हमेशा दुःख रहेगा।
असल में आज आप जहाँ बैठे हो, वहाँ बैठ करके आपको लगता है कि मुझे दुःख बहुत है। कुछ कम हो जाए, तो प्रसन्नता रहेगी। ये आप जहाँ बैठे हो न, वहाँ पर दुखी होने वाला और दुःख कितना है, इसका निर्णय करने वाला, दोनो बैठें हैं एक साथ। और जिसको आप कहते हो कि दुःख कुछ कम हो जाए, वो कम भी होगा तो ये दुखी होने वाला, और दुःख का निर्णय करने वाला फिर दोनों एक साथ ही बैठे होंगे। दुःख कितना है, ये तय करने वाला भी बदल गया, दुःख हमेशा एक बराबर रहेगा।
दुःख कम केवल कल्पनाओं में होता है।
नहीं समझ रहे?