दिए को मशाल बनाओगे, या बुझा ही दोगे?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी जब मैं आध्यात्मिकता के बारे में किसी और से बात कर रहा होता हूँ तो एक शानदार ऊर्जा शब्दों के माध्यम से बह रही होती है। मैं दो घण्टे लगातार बिना सोचे-समझे बोल रहा होता हूँ। लेकिन जब मैं खुद को प्रतिबिम्बित करता हूँ उन्हीं शब्दों पर, तो मुझे ईमानदारी नहीं मिलती है। तो क्या मुझे बोलना बन्द कर देना चाहिए? क्योंकि एक अपराध-बोध सामने आता है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: बिलकुल, ये नहीं कहा कि “आचार्य जी, ये बताइए कि जो बोल रहा हूँ उस पर जियूँ कैसे?” वाह-री माया! तत्काल एक अनूठा विकल्प खड़ा करा अपने लिए कि “आचार्य जी, जो मैं बोलता हूँ उस पर जी तो पा नहीं रहा, तो मैं ऐसा करता हूँ, बोलना ही बंद कर देता हूँ।”

और ऐसा तर्क आचार्य जी ने अब इतना सुना है — “आचार्य जी, सत्रों में आता हूँ, आप जो बात बताते हैं बिलकुल ठीक लगती हैं पर बाहर उसका पालन तो मैं करता नहीं, तो मैं सत्रों में आना ही बंद कर देता हूँ।”

“बेटा आप पिछले चार सत्रों में क्यों नहीं आए?” “जी! क्योंकि मैं उसके पिछले चार सत्रों में भी नहीं आया था।” “आप पिछले चार सत्रों में क्यों नहीं आए?” “क्योंकि मैं उसके पिछले चार सत्रों में भी नहीं आया था, तो मुझे इतनी शर्म आई कि मैं अगले चार सत्रों में भी नहीं आया।” क्या तर्क है!

व्यर्थ ही कहते हो “वारी जाऊँ मैं सद्गुरु के”, वारी तो तुम अपनी ‘बुद्धि’ के जाओ! कहाँ-कहाँ से चुनकर युक्तियाँ उछालते हो। आज नहाए क्यों नहीं? “क्योंकि कल भी नहीं नहाया था। तो बड़ी लाज लगी, इसलिए आज भी नहीं नहाया।” क्या…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org