दाएँ हाथ से दो तो बाएँ को पता ना चले

आचार्य प्रशांत: मैत्री को अगर समझना हो तो इस प्रकरण को ठीक-ठीक देख लें।

सुदामा माँगता नहीं, कृष्ण पूछ कर देते नहीं, जता कर देते नहीं। और दोनों ओर से मैत्री का इससे प्रगाढ़ उदाहरण नहीं मिल सकता। एक है जो कह रहा है कि “मुझे माँगना ही नहीं!” और दूसरा कह रहा है कि “मुझे जताना ही नहीं।” और इसमें कोई किसी पर एहसान नहीं कर रहा। कोई न छोटा है, न बड़ा है। एक कह रहा है, “मुझे माँगना ही नहीं”, और दूसरा कह रहा है, “मुझे जताना ही नहीं।”

और हमारी दोस्ती कैसी होती है?

प्र: दें न दें, जता देते हैं।

आचार्य: दे भी कई बार हम देते हैं, देने से भी हम पीछे नहीं हटते। ऐसा नहीं है कि हम देते नहीं। दोस्तों को कई बार देते भी हैं, पर जताने से नहीं चूकते। शब्दों से ना भी जताएँ तो मन में तो यह भाव रहता ही है कि दिया।

यहाँ कृष्ण ने, जितना सुदामा अपेक्षा कर सकता था, उससे कई गुना दे दिया और ज़िक्र तक नहीं किया। जितना सुदामा की अपेक्षा हो सकती थी उससे कई गुना, और ज़िक्र तक नहीं किया। और सुदामा कैसा? कि भूखों मर रहा था पर मुँह खोलकर कुछ माँगा नहीं। उसके लिए इतना ही बहुत था कि मित्र ने प्रेम से गले लगा लिया। उसके लिए इतना ही काफ़ी था। तो यह मैत्री के दो पहलू हैं। दोनों एक ही चीज़ें है, पर दो दिशाएँ हैं मैत्री को देखने की।

पहली, बिना माँगे उसमें सब कुछ मिल जाता है। यह सुदामा की दिशा है। पहली, यदि मैत्री सच्ची है, और सच्ची मैत्री और प्रेम में कोई विशेष अंतर नहीं है। अगर सच्ची है, तो उसमें बिना माँगे मिलेगा। माँग-माँग कर अगर कुछ मिल रहा है, तो उसमें कुछ है नहीं।

अगर मैत्री सच्ची है तो उसमें बिना माँगे मिलेगा।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org