त्योहारों को मनाने का सही तरीका क्या?
--
होली का वास्तविक अर्थ जानो, दीवाली का वास्तविक अर्थ जानो, जानो कि ईद माने क्या। और उन अवसरों को उनके सच्चे अर्थ के साथ मनाओ। इतना ही नहीं, मैं तो कह रहा हूँ कि तुम्हारे अपने निजी उत्सव भी होने चाहिए।
आवश्यक थोड़े ही है कि तुम समाज स्वीकृत उत्सवों तक ही अपने आप को सीमित रखो। ये बात तो तुम्हारी निजी भी है न। भीतर कृतज्ञता उठी, उपकृत अनुभव कर रहे हो, वो त्योहार हो गया तुम्हारे लिए। कैलेंडर देखने की ज़रूरत थोड़े ही है। बस कह दो, “आज त्योहार है मेरा, आज कुछ खास है। आज दिल बिलकुल अहो-भाव से भरा हुआ है। शुक्रिया अदा करना है। आज त्योहार मनाएँगे, आज कुछ खास है।”
लोग विस्मित होंगे — “अरे! आज तो सोलह अप्रैल, आज तो कुछ है नहीं!”
तुम कहो, “आज है। आज हमारी निजी दीवाली है। कहाँ है दीप? लाओ!“
और आवश्यक नहीं है कि तुम दीप ही जलाओ; तुम्हारा जैसे मन करे, वैसे उत्सव मनाओ। उत्सव आवश्यक है। ज्ञापन आवश्यक है। ज्ञापन समझते हो? प्रकाशन, ज़ाहिर करना।
कृतज्ञता ज्ञापित करना बहुत ज़रूरी है, मुँह से बोलना बहुत ज़रूरी है। ये नहीं कि मन-ही-मन कह रहे हैं कि, “हाँ, मिला तो है थोड़ा-बहुत!” कई बार मन-ही-मन भी नहीं कह रहे।
पहली बात तो मन स्वीकार करे और दूसरी बात लफ़्जों में भी अभिव्यक्ति होने चाहिए। साफ-साफ खुल कर बोलो। शिकायत खुलकर करते हो या नहीं? शिकायत करने के समय तो लफ़्जों की गंगा बहा देते हो। “ये बुरा और वो बुरा!”
त्योहार चाहिए ताकि कभी-कभार ही सही तुम इन्हीं लफ़्जों से धन्यवाद भी तो बोल सको।
ये तो तुम कभी करते नहीं। शिकायत इतनी की, कभी शुक्रिया भी अदा करा?
तो बस! चेहरे पर शिकायतें-ही-शिकायतें लिखी रहतीं हैं। जैसे छोटे बच्चों की कॉपी में पंक्तियाँ होती हैं न, वैसे ही फिर हमारे चेहरे पर झुर्रियाँ होती हैं।
छोटे बच्चे भी लिखते हैं, हमारी झुर्रियों में भी लिखा होता है, क्या? शिकायतें।
खुल कर गाओ, खुल कर बोलो। नाच-नाच कर शुक्रिया अदा करो।
त्योहार आवश्यक है। और अगर तुम रोज़ ही उत्सव मना सको तो फिर बात ही क्या है, वाह!
पूरा वीडियो यहाँ देखें।
आचार्य प्रशांत और उनके साहित्य के विषय में जानने, और संस्था से लाभान्वित होने हेतु आपका स्वागत है।