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तुम ही साधु, तुम ही शैतान

वास्तव में वृत्तियों का लोप होना ही आत्मा का जगना है क्योंकि आत्मा ना तो जगती है, ना सोती है सिर्फ़ मन कहता है आत्मा जगी या सोई, मन के सन्दर्भ में ही आत्मा का जागरण होता है अन्यथा ना आत्मा का जागरण है ना निद्रा है।

आत्मा का जागरण वास्तव में मन का जागरण हैं आत्मा के प्रति।

पशुता अजैविक होती है, दुष्टता सामाजिक होती है।

दुष्टता हमें समाज देता है क्योंकि समाज बहुत उत्सुक होता है हमें सज्जनता देने में।

समाज को स्वीकार नहीं होता कि पशु पैदा हुआ है और ठीक ही है स्वीकार नहीं होता, इरादे बुरे नहीं है। इरादा यही है कि पशु पैदा हुआ है, उसे पशु से उच्च्तः कुछ और बनना चाहिए। तो समाज कोशिश करता है कि इसे सज्जन बना दें और सज्जनता के संस्कार देता है लेकिन समाज भूल जाता है कि संस्कार देकर सज्जन नहीं बनाया जा सकता, संस्कार देकर के इतना ही होता है कि ‘दुर्जन’ करोड़ों-अरबों की तादात में पैदा होते रहते हैं।

सज्जनता की कोशिश, दुर्जनता को जन्म दे देती है। यह संस्कारों का दूसरा तल है जो मन पर बैठ जाता है। पहला तल जैविक था, दूसरा सामाजिक हो जाता है लेकिन कितने भी संस्कार दे दो मन को, साधु अड़ियल है। वो संस्कारित होता नहीं। मन का एक कोना लगातार-लगातार बचा रहता है, जो समाज से और प्रकृति से, दोनों से अछूता रह जाता है। वो तो साधु है, वो तो लगातार अपने गन्तव्य को, अपने प्रिय को, अपने राम को ही भजता रहता है। वो सिंह और साँप होकर पैदा नहीं हुआ था और उसे सज्जन होने की कोई अभिलाषा भी नहीं है। वो तो राममय है, उसे तो राम ही चाहिए।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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