तुम वो जो बाहरी को बाहरी जाने!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कोई भी अपने विचार हमपर थोप देता है, उसी विचार को हम फिर अपना बना लेते हैं और उसी के अनुसार जीने लगते हैं। दूसरों के विचारों को अपने ऊपर आने से कैसे रोकें?
आचार्य प्रशांत: क्या ये सवाल भी दूसरों ने कहा है पूछने को?
प्र १: नहीं सर, ख़ुद का है।
आचार्य: सवाल अपना है न? जब दूसरों ने ये सवाल तुमको नहीं दिया तो फिर ये सवाल कहाँ से आ गया?
प्र १: सर, दूसरों के विचारों से निकलकर।
आचार्य: बस जो बोला है सीधे-सीधे उसको पकड़ो और उसी का उत्तर दो। जब दूसरों ने तुम्हें ये सवाल नहीं दिया तो फिर ये सवाल कहाँ से आ गया? इस सवाल का स्रोत क्या है? है न कुछ? कुछ है न? जो दूसरों के दिये हुए को देख सकता है और उसको साफ़-साफ़ समझ सकता है, कुछ है न ऐसा कि नहीं है?
प्र १: है।
आचार्य: है। उसी का इस्तेमाल करो। हमने आज जब बात शुरू हुई थी तभी कहा था कि दूसरे तुम्हें सबकुछ दे सकते हैं पर जो तुम्हारी असलीयत है, जो वाक़ई तुम हो वो तो तुम्हें दूसरे नहीं दे सकते। भाई, छोटे से उदाहरण ले लो, कपड़ा बाहर से आता है शरीर तो नहीं बाहर से आता। अच्छा शरीर भी बाहर से आता है पर जो सोचने की शक्ति है वो तो नहीं बाहर से आती। अच्छा चलो सोचने की शक्ति भी बाहर से आती है, सोचने की शक्ति बाहर से आती है पर जो समझ है सोच के पीछे, वो तो नहीं बाहर से आती।
कहीं-न-कहीं तुम्हें रुकना पड़ेगा, कहीं-न-कहीं वो तुम्हें मिल जाएगा जो बाहरी नहीं है। उसी के साथ रहो न और उसके साथ रहने का तरीक़ा ये है कि तुम ये मानना छोड़ दो कि तुम दूसरों पर निर्भर हो।
हमारी हार वहाँ पर हो रही है जहाँ हम ये माने बैठे हैं कि मेरा काम सब दुनिया पर आश्रित है। जहाँ हम ये माने बैठे हैं कि जो कुछ भी महत्वपूर्ण है वो हमें दूसरों से दुनिया से मिलता है। ये बात सही नहीं है ये बात हमारे मन में भर दी गयी है। ये बात बिलकुल भी तथ्य नहीं है। ये बस डरे हुए लोगों ने, आश्रित लोगों ने तुम्हें भी भ्रम में डाल दिया है कि तुम भी आश्रित हो दूसरों पर, वरना तो बात सीधी ही है कि दूसरों ने तुम्हें विचार दिया और तुम खड़े होकर कह रहे हो कि मैं इससे मुक्त कैसे हो जाऊँ, तो बात सीधी ही है कि तुम्हारे पास कुछ है जो दूसरों का दिया हुआ नहीं है।
तो समस्या ये नहीं है कि मैं उसको पाऊँ कैसे जो दूसरों ने नहीं दिया वो तो तुम्हारे पास है ही। समस्या ये है कि जो दूसरों का दिया हुआ है, मैं उसको इतना महत्वपूर्ण क्यों मानता हूँ। मैंने उसे अनुमति क्यों दे दी है अपने ऊपर हावी होने की। जब तुम थोड़ा-सा उससे अलग हटने की कोशिश करोगे, भरोसा करोगे कि ज़रा हटकर तो देखूँ, एक दो बार कोशिश तो करके देखूँ कि अपने क़दमों पर चल भी सकता हूँ कि नहीं। आँखें अपनी खोलकर देखूँ, क्या पता अपनी ही आँखों से कुछ दिखता हो। जब प्रयास करोगे तो दिखने लगेगा और भरोसा आ जाएगा कि अपना जो है वो बढ़िया है, काफ़ी है और सबसे महत्वपूर्ण वही है।
असल में हम सब लोग सिर्फ़ अपने भोलेपन के शिकार हैं। हम सब अच्छे हैं। इस कारण हमने जल्दी से यक़ीन कर लिया है। हम सब सीधे लोग हैं एक तरह से। हमने जल्दी से मान लिया है। हमको कोई अन्देशा ही नहीं हुआ कि क्या पता हमारे साथ धोखा किया जा रहा हो या क्या पता कि जो हमसे कह रहा है वो ख़ुद ही नासमझ हो।
हम तो बच्चे थे। सहज विश्वासी, हमारे सामने बातें आती गयीं और हम उनको मानते गये। उसमें तुम्हारी ग़लती नहीं थी उसमें तुम्हारा भोलापन था लेकिन अब देखो कि भोलापन भी तभी तक ठीक है जब उसके पीछे समझ हो। अन्यथा भोलापन जल्दी ही मूर्खता बन जाता है। तो भोलापन अपना क़ायम रखो, मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम कपटी हो जाओ, भोलापन क़ायम रखो लेकिन समझ के साथ। समझदारी के साथ। कुछ तुम्हें कह दिया गया कुछ है जो लगातार तुमसे कहा जा रहा है और दुनिया तुमसे चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है, तुम्हें बताया जा रहा है जीवन ऐसा है, पैसे का ये अर्थ होता है, काम का ये अर्थ होता है, जीवन इस प्रकार से जीना चाहिए, ये सारी बातें तुमसे लगातार कही जा रही हैं।
अब थोड़ा समझ का विवेक का भी इस्तेमाल करो, थोड़ा अपनेआप से पूछो, क्या वाक़ई ऐसा है। जल्दी से पकड़कर मत बैठ जाओ बात को और बात आसान है क्योंकि जो तुमको पूछना है, जो तुमको देखना है वो तुम्हारे सामने ही है। तुमसे यही तो कहा जा रहा है न कि जीवन ऐसे-ऐसे जियो। अब जीवन कोई मंगल ग्रह की चीज़ तो नहीं है, जीवन तो तुम्हारे सामने ही है। ख़ुद ही देख लो, ख़ुद ही देख लो कि इस तरह से जीने के परिणाम क्या हैं। देखो बाहर दुनिया कैसी है अपने आस-पास ही। ख़ुद ही देख लो कि जो इस प्रकार चलते हैं और इस प्रकार सोचते हैं उनका क्या होता है। फिर तुमसे जो छूटना है वो छूट जाएगा तुम कह रहे हो कि दूसरों ने मन पर कब्ज़ा कर रखा है, वो कब्ज़ा करने की तुमने अनुमति दी है। वो अनुमति तुम वापस ले लोगे मुक्त हो जाओगे। (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) बैठो।
प्र २: आचार्य जी, एक तरह से हम जो सोचते हैं, समझते हैं या सीखते हैं सब बाहरी ही तो होता है, जैसे कि हमने बाहर से सुना है कि सच बोलना सही है इसलिए हम उसे सही मानते हैं। किसी भी चीज़ को हम स्वयं से कैसे जान सकते हैं?
आचार्य: तुम जो कह रहे हो अगर वो सच है तो बड़ा भयानक सच है। फिर तो जीने का कोई अर्थ ही नहीं बचा। अगर सात की उम्र से पहले ही तुम्हारे मन की जो हालत बननी थी वो बन चुकी है तो फिर अब जीने की ज़रूरत क्या है फिर तो तुम्हारा जो होना था सो हो चुका, अब क्या बस उसी को दोहराना है? फिर तो तुम्हारा जो होना था सो हो गया; अब क्यों जीना है? दोहराने के लिए? जो सवाल मैंने उससे पूछा था वही मैं तुमसे भी पूछ रहा हूँ — क्या ये उत्सुकता भी बाहरी है? क्या किसी ने ट्रैंड (प्रशिक्षित) करके भेजा कि ये सवाल पूछना या इस तरह के सवाल पूछे जाने चाहिए? है क्या बाहरी?
प्र २: नहीं, मेरा कहने का मतलब ये था कि जो हम सोचते हैं वो भी तो बाहरी ही है तो फिर हमारा अपना…
आचार्य: बेटा, तुम्हारी सोच बाहरी हो सकती है पर क्या समझने की शक्ति भी बाहरी है? सोच बाहरी हो सकती है पर क्या समझने की ताक़त भी बाहर से आयी है? ये उदाहरण मैं अक्सर देता हूँ, फिर से दे रहा हूँ तुम लोगों को। मैं कोई बात कह रहा हूँ … (एक श्रोता बीच में कुछ बोलते हैं)
श्रोता सर, सोल और समाधि के बीच क्या फ़र्क है?
आचार्य: (बाहर की ओर संकेत करते हुए) जब अभी मैं बोल रहा हूँ बीच में, तो न तो तुम सोच रहे हो न समझ रहे हो और अब तुम्हारी जगह बाहर होगी।
श्रोता सर, मन में सवाल आया तो पूछ लिया।
आचार्य: मन यदि सवालों में घिरा हुआ है तो वो समझ ही नहीं पा रहा कि मैं क्या कह रहा हूँ। जो लोग ध्यान से सुन रहे हैं क्या वो साथ में सोचते भी जा रहे हैं वो सिर्फ़ सुन रहे हैं और यदि तुम्हारा मन अभी सवालों में ही घिरा हुआ है तो तुम सुन नहीं रहे तो ऐसे में उस सवाल की क्या कीमत है?
(श्रोता कुछ कहते हैं) अभी भी मैंनें वाक्य पूरा नहीं किया उससे पहले तुम बोलने को बेताब हो रहे थे, अभी भी। ठीक अभी भी, तो ऐसे में तुम्हारा यहाँ होना इस पूरी हॉल के लिए ख़तरनाक है।
श्रोता: सर, मन में सूझा था।
आचार्य: नहीं, नहीं, ये मन तुम्हारा है ही नहीं बेटा। ये जो मन है न ये विक्षिप्त मन है जो दस दिशाओं में भाग रहा है। शान्त होकर ज़रा ध्यान से पहले फंडामेंटल्स (बुनियादी सिद्धान्त) जैसे बच्चों को सिखाया जाता है न, सीधे होकर बैठाना वैसे हो जाओ। अभी बड़े वाले प्रश्न पूछने की स्थिति तो आयी ही नहीं है। अभी तो जैसे पाँच साल के बच्चे को तुम कह रहे हो न सीख दी जाती है, अभी उसकी आवश्यकता है। ठीक आसन लगाओ और उस पर सीधे होकर के बैठ जाओ। बिलकुल। हाँ, और ज़रा मन को संयमित रखो कि इधर-उधर भागना नहीं है, दौड़ना नहीं है। नज़रों पर भी कंट्रोल (संयम) रखो और मन पर भी नहीं तो तुम सबके लिए यहाँ पर दिक्क़त पैदा करोगे और फिर सवाल पूछना बीच में नहीं लेकिन।
वापस आते हैं। तुम कह रहे हो जो भी सोचते हैं बाहर से आया है, जो भी सोचते हैं। तो ये बड़ा अच्छा उदाहरण होता है जब हम इस कैमरे का उदाहरण लेते हैं। मैं यहाँ बैठा हूँ, तुम मुझे देख रहे हो ये मूलतः यही है कि यहाँ से कुछ लाइट वेव्स (लहरें) निकल रही हैं और वो तुम्हारी आँखों पर पड़ रही हैं। मैं तुमसे कह रहा हूँ, तुम सुन पा रहे हो ये मूलतः यही है कि कुछ तरंगें हैं ध्वनि के, तुम्हारे कानों पर पड़ रही हैं। ये दोनों चीज़ें तो इस कैमरे को भी उपलब्ध हो रही हैं। दोनों बाहरी चीज़ें हैं, तुम्हें मिल रही हैं, इस कैमरे को भी मिल रही हैं। पर ये कैमरा कितना भी विकसित हो जाए, कभी भी समझ नहीं सकता कि मैं क्या कह रहा हूँ। कारण, इस कैमरे का सबकुछ बाहरी है, इसका डिज़ाइन भी बाहर से आया है, इसको स्विच ऑन, स्विच ऑफ़ करने का निर्णय भी कोई और लेता है, कहाँ खड़ा होगा क्या रिकॉर्डिंग करेगा ये सब भी दूसरे तय करते हैं।
इस कैमरे की अपनी कोई आत्मा नहीं है, पदार्थ भर है ये। ये शरीर है कैमरा। सिर्फ़ एक शरीर है कैमरा। इस कारण ये कभी समझ नहीं सकता मैं क्या कह रहा हूँ। तो इस कैमरे को एक बड़े-से-बड़े सुपरकंप्यूटर से भी जोड़ दो तो भी ये कैमरा कभी समझ नहीं पाएगा मैं क्या कह रहा हूँ।
हाँ, ये इकट्ठा कर लेगा। एक प्रकार की सोच इसको मिल जाएगी। इकट्ठा कर लिया है। मैंने जो कुछ कहा है ये उसका एनालिसिस (विश्लेषण) कर सकता है और तुम जैसा एनालिसिस करोगे तुमसे बेहतर एनालिसिस कर सकता है सुपरकंप्यूटर। वो बिलकुल बता पाएगा शब्दश: मैंने क्या कहा। वो बता पाएगा कि आवाज़ कब ऊँची हुई, कब नीची हुई। किन-किन मौक़ों पर विराम दिया गया। कितनी देर तक मेरी दृष्टि इधर को थी कितनी देर तक उधर को थी। ये सारे वो एनालिसिस कर सकता है। फेस रिकग्निशन टेक्नोलॉजी (चेहरा पहचानने की तकनीक) होती है, वॉएस (आवाज़) का भी एनालिसिस हो सकता है। ये सारी बातें वो कर लेगा पर क्या कभी वो समझ पाएगा कि क्या कहा गया?
प्र २: नहीं, सर।
आचार्य: तो सोच बाहर से आ सकती है, समझ नहीं बाहर से आती, समझ नहीं बाहर से आती और यही अन्तर है आदमी में और जड़ पदार्थ में। ये दावा कभी मत करना कि आदमी के पास जो कुछ है वो बाहरी है, कभी भी मत करना। जैसा कि मैंने बात की शुरुआत में ही कहा था कि अगर ऐसा है तो ये बड़ी भयानक बात हो जाएगी क्योंकि फिर जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा न। फिर तो तुम मशीन हो, जिसका डिज़ाइन भी दूसरों ने तय किया है और जिसका सॉफ़्टवेयर भी दूसरों ने ही निर्धरित किया है। फिर जीने का कोई अर्थ नहीं बचा क्योंकि अब समझा नहीं जा सकता, जब समझा ही नहीं जा सकता तो क्या कर रहे हैं? मशीन हैं, ख़त्म ही हो जाते हैं। पर ख़त्म होने का निर्णय भी चैतन्य मन ही ले सकता है। किसी मशीन ने आज तक ये नहीं कहा कि बहुत हो गया रोज़-रोज़ एक ही काम करते हैं और हर मशीन एक ही काम करती है रोज़-रोज़। किसी मशीन ने आज तक ये नहीं कहा कि बहुत हो गया रोज़-रोज़ एक ही काम करते हैं, अब आत्महत्या कर लेंगे।
चेतना तुम्हें नहीं दे सकता कोई और, धारणाएँ दे सकता है, विचार दे सकता है। जिसको ये बात समझ में आती है न वो फिर दूसरों पर निर्भरता छोड़ देता है। वो कहता है, ‘दिया होगा, तुमने बाहर से कुछ ज्ञान दिया होगा, चेतना नहीं दी है तुमने, वो हमारी है।’
शब्द मैं तुम्हें दे रहा हूँ, समझ तुम रहे हो। अगर तुम में समझने की क़ाबिलियत न होती तो मेरे लिए शब्द किसी काम के नहीं होते और अगर तुममें समझने की क़ाबिलियत है तो भले ही मैं तुम्हें ये शब्द न दूँ पर देर-सबेर तुम कहीं-न-कहीं से समझ ही लोगे। तो ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है ये जो शब्द मैं तुम्हें दे रहा हूँ या तुम्हारी समझ पाने की शक्ति? ठीक-ठीक बोलो और इस बात को बिलकुल गहरे घुस जाने दो। ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है, ये जो मैं बाहरी शब्द तुम्हें दे रहा हूँ या तुम्हारी अपनी समझ पाने की शक्ति?
प्र २: अपनी समझ पाने की शक्ति।
आचार्य: एक मुर्दा पड़ा हो उसको तुम कितने शब्द दे दो, उसके ऊपर तुम सौ किताबें रख दो उसको क्या मिल जाएगा? या मान लो जीवित व्यक्ति ही सोया पड़ा हो तुम उससे सौ बातें बोल दो, उसे क्या मिल जाएगा? या मान लो जगा हुआ व्यक्ति ही ध्यान में न हो, जैसे कि हम अक्सर नहीं होते कि जगा हुआ आदमी है, आँखें खुली दिखती हैं, पर ध्यान में नहीं है। मन उसका भटक ही रहा है इधर-उधर उसको तुम सौ बातें बोल दो, उसको क्या मिल जाना है? तुम्हें जो मिलना है तुम्हारी समझ से मिलना है। बात स्पष्ट हो पा रही है? और वो बाहर से नहीं आती। ये बिलकुल मत सोचना कि कुछ-कुछ करके तुम समझ विकसित कर सकते हो, नहीं। वो बाहर से नहीं आती। बाहर से उसको ढँकने वाली चीज़ें ज़रूर आती हैं पर वो स्वयं बाहर से नहीं आती।
दो तरह के आदमी होते हैं दीपक, एक जो इस बात को समझते हैं जो मैंने अभी-अभी कही और दूसरे जो इसको नहीं समझते और इन दोनों व्यक्तित्वों में सिर्फ़ यही अन्तर नहीं होता कि एक को एक बात समझ में आयी है और एक को एक बात समझ में नहीं आयी। उन दोनों व्यक्तित्वों में उतना ही अन्तर होता है जितना ज़िन्दे में और मुर्दे में। उनका जीवन ही बिलकुल अलग-अलग तरीक़े से चलता है। जो दूसरों पर निर्भर है और जिसने ये जाना कि अपनी समझ के अनुसार जिऊँगा। इन दोनों आदमियों का जीवन बिलकुल अलग-अलग चलता है।
कोई तुलना ही नहीं है, तो मैं जो कह रहा हूँ उसको थ्योरी (सिद्धान्त) भर मत मान लेना कि एक बात बता दी है। नहीं, बात नहीं बता दी हे। ये पूरा-पूरा समूचा जीवन है जो मैं तुमसे कह रहा हूँ। उनका एक-एक क़दम, एक-एक साँस अलग होती है एक निर्भर आदमी की और एक समझदार आदमी की। उनका सबकुछ बिलकुल अलग चलता है। छोटा-मोटा अन्तर नहीं, तो जितनी ताक़त है, जितना ज़ोर लगा सकते हो उतना ज़ोर लगाकर के इस बात को पकड़ लो। अपना पूरा ध्यान इस पर डालो जब तक ये बात बिलकुल समझ में पैठ न जाए। ठीक है? फिर वो बात मेरी होगी ही नहीं, वो तुम्हारी होगी क्योंकि समझ वैसे भी हमेशा तुम्हारी होती है।