तुम भी धोखा खा गए?

आचार्य प्रशांत: बात एक ही है, उसको अनंत तरीकों से कहना पड़ता है क्योंकि ज़िद्द भी हमारी एक ही है जो अनंत नामों, कारणों और बहानों के पीछे छुपती है। खेल तो ये एक बनाम एक का ही है — एक सच, एक झूठ। लेकिन झूठ बहरूपिया है — हज़ारों, लाखों रूप बनाता है। तो झूठ के हर रूप के सामने सच को उसी विशिष्ट रूप की काट बनकर आना पड़ता है। तो जितने रूप, नाम फिर झूठ लेता है, उतने ही रूप और नाम सच को भी चाहिए होते हैं। समझ में आ रही है बात? उपनिषदों के सब श्लोकों को इसी दृष्टि से देखिए।

बात सबको एक ही कहनी है क्योंकि कहने के लिए कोई दो बातें हैं ही नहीं। वास्तव में तो कहने के लिए कोई एक बात भी नहीं है। पर जितनी बातें ले-दे कर, उनका सार एक ही है। तो एक बात इतने सारे तरीकों से, कभी यहाँ से, कभी वहाँ से, इतने उदाहरणों के साथ, इतने संदर्भ, इतने दृष्टांत, क्यों? क्योंकि झूठ बचने के लिए नाना रूप बदलता है। झूठ बचने के लिए नाना कुतर्क करता है और हर कुतर्क की काट के लिए फिर सच को एक तर्क देना पड़ता है। हालांकि सच किसी तर्क में समाता नहीं। लेकिन सच से तर्क निकलते हैं, झूठ की काट के लिए। उन तर्कों में सच नहीं होता। पर वो तर्क सच से आते हैं। बात समझ रहे हो?

किसी श्लोक में सच समाहित नहीं, संभव ही नहीं। लेकिन सच से उद्भूत होते हैं श्लोक। क्यों चाहिए श्लोक? क्योंकि पिछले श्लोक ने झूठ को चोट दी तो झूठ गया, वो कहीं और छुप कर खड़ा हो गया। वो कोई और बात करने लगा, किसी और भाषा में बात करने लगा, सौ बहाने। तो जो कुछ भी झूठ कह रहा है उसके समकक्ष फिर सच को भी खड़ा होना पड़ता है। कंस के सामने कृष्ण बन कर, रावण के सामने राम बन कर।

कर्म तो सारे प्रकृति ही कराती है। सोच भी मत लेना कि कोई भी कर्म हम करते हैं। कर्म सारे प्रकृति कराती है और सब कर्मों में प्रकृति की ही पुरानी वृत्ति निहित है। कौन सी वृत्ति? कि बस चलते जाना है, चलते जाना है, घूमते जाना है, घूमते जाना है।

कोई भी कर्म वास्तव में किसी और उद्देश्य के लिए हमसे उठता ही नहीं है। अरे जब हम ही नहीं उठें हैं किसी और उद्देश्य के लिए तो हमसे होने वाला कोई कर्म, कोई और उद्देश्य क्या रखेगा? किस उद्देश्य के लिए उठे हैं हम? किस उद्देश्य के लिए जीव का जन्म होता है? खाओ-पीयो, आगे बढ़ो, सुख-दुख के झूले झूलो और अपने कुछ निशान छोड़ कर एकदिन मर जाओ। जब हम इस उद्देश्य के लिए आए तो हमारे सारे कर्म भी स्पष्ट है, इसी उद्देश्य के लिए होंगे। भले ही उन कर्मों को हम नाम कुछ देते हैं। कहने को हम उनके साथ बड़े-बड़े लक्ष्य जोड़ दें, बड़े महान शब्द जोड़ दें। लेकिन ले-दे करके जीव के सब कर्मों का उद्देश्य एक ही होता है।

अब ये कोई आनंदप्रद स्थिति तो नहीं है। किसके लिए नहीं है? उसके लिए नहीं है जो इसी कर्मजाल में बँधा नहीं रहना चाहता।

जो बँधा ही रहना चाहता है उसके लिए तो भाई, उपनिषद् ही नहीं है। जो बँधा ही रहना चाहता है, जिसको अभी बँधे रहने में तकलीफ़ नहीं हो रही उसके लिए तो उपनिषद् ही नहीं है।

तुमने कहा आनंदप्रद स्थिति नहीं है, इसी त्रिणात्मक जाल में, इसी कर्मजाल में फँसे रहना। किसके लिए? जिसको छटपटाहट अनुभव होने लगी है; जिसका दम घुटने सा लगा हो; जिसे कुछ बात समझ में आने लग गई हो; कुछ याद आने लग गया हो जिसको; कुछ भूलने लग गया हो जिसको।

तो उसको फिर इस कर्मजाल से मुक्ति का एक रास्ता बताया जा रहा है। जो इस रास्ते को समझ लेगा उसकी रिहाई हो जाएगी। अमृत जैसा श्लोक हैं ये; जेल की चाबी, ताला खुल सकता है।

क्या बताया गया है? बेटा पैदा हुए हो तो तुम पर तमाम तरह के आंतरिक दबाव रहेंगे कुछ करने के — करो, करो, करो। भीतर से तुम्हारे आवेग उठेगा — ये करो, वो करो। ठीक है?

लेकिन तुम जानवर नहीं हो, तुम चैतन्य जीव हो। अंतर क्या है? अंतर ये है कि जानवर के भीतर जब कोई प्राकृतिक आवेग उठता है तो जानवर के पास वो चेतना नहीं है जो पूछे कि इससे मुझे क्या मिलेगा। जानवर के पास वो चेतना नहीं है जो ये पूछे कि इससे मुझे क्या मिलेगा। जानवर के भीतर क्रोध उठ रहा हो, ईर्ष्या उठ रही हो, डर उठ रहा हो, वासना उठ रही हो, भूख उठ रही हो, तो जानवर के भीतर से जो भी आवेग उठ रहा हैं, जानवर बस उसका पालन कर लेगा। जानवर को गुस्सा आया; आप जा रहे हैं बाज़ार में, वहाँ एक सांड हैं, उसको किसी ने कोंच दिया तो उसे गुस्सा आ गया। क्या वो सांड किसी तरह का आत्म-अवलोकन, इंटरनल रिफलेक्शन , करता है कि मुझे क्रोध क्यों आ रहा है? करता है क्या? नहीं करेगा न? उसे क्रोध आया तो वो आत्म-अवलोकन नहीं करेगा तो क्या करेगा? वो सींग मारेगा। क्या करेगा?

श्रोतागण: सींग मारेगा।

आचार्य: सांड को कुछ खाने का दिख गया, वो खुद से सवाल पूछेगा — ‘मैं क्यों बेचारे गरीब वाले की सब्ज़ी खाने के लिए प्रेरित हो रहा हूँ? मैं अच्छा खासा हट्टा-कट्टा सांड हूँ और ये सब्ज़ी वाला है। ये चार गोभी, पाँच गोभी रख कर बैठा है। ये मैं खा लूँगा तो ये क्या बेचेगा, क्या घर चलाएगा?’ सांड ऐसा कभी प्रश्न करेगा? सांड को सब्ज़ी दिख गई हरी, क्या करेगा? मुँह मार देगा, खा लेगा।

तो यहाँ पर मनुष्य की स्थिति अन्य जीवों से अलग हो जाती है। समानता कहाँ तक थी? समानता यहाँ तक थी कि जो उद्वेग अन्य जीवों में उठते हैं वो इंसान में भी उठते हैं। ठीक है न?

ईर्ष्या बिल्ली को भी लगती है और इंसान को भी लगती हैं; डर कुत्ते को भी लगता है और इंसान को भी लगता है। अंतर ये है कि आदमी के पास वो चेतना है जो स्वयं को देख सकती हैं, जो आत्म निरीक्षण कर सकती है। जानवर के पास वो चेतना नहीं है जो ख़ुद को देख सके।

तो आदमी की चेतना अपनेआप को देखती है — मैं हूँ, मेरे भीतर से किसी चीज़ का लालच उठा। और लालच पशु में भी उठता है न? पशुओं के लालच भरे चेहरें देखें हैं कभी? आप खाना खा रहे हो, एक मेज़ पर खाना रखा हो और आसपास कुत्ते हो। आप उनकी आँखों में देखिएगा, आप बिलकुल देख लेंगे कि लालच है।

मैं इंसान हूँ, मुझे लालच उठा। मुझे लालच उठा तो मेरे पास एक चेतना है जो जान जाएगी कि अभी मैं लालची हो रहा हूँ। अब वो चेतना अपनेआप से पूछेगी कि इस लालच की ज़रूरत क्या हैं? ये लालच उपयोगी क्यों हैं? और फिर वो चेतना अपनेआप को समझाती है कि ये आज इसलिए उपयोगी है क्योंकि इस लालच से तुम्हें कुछ मिलने वाला है। ये बात समझना।

तो जानवर को लालच उठा; जानवर को ऐसे किसी सवाल-जवाब से गुज़रना नहीं पड़ेगा। उसको लालच उठेगा, वो मुँह मार देगा। इंसान को लालच उठा; इंसान उस लालच से प्रेरित होकर लालच-वश कुछ काम करे, इससे पहले इंसान को एक सवाल का जवाब देना पड़ता है। इंसान को अपनेआप को समझाना पड़ता है। एक परीक्षा से गुजरना पड़ता है आंतरिक। वो परीक्षा क्या पूछती है? इस लालच से क्या मिलेगा और हमारे भीतर वो चेतना बैठी हुई है जो लगातार यही सवाल पूछती है कि इससे मुझे मिलेगा क्या?

क्योंकि आदमी के पास एक हैरान, परेशान, भूखी-प्यासी, असंतुष्ट चेतना हैं, जो कि एक पशु के पास नहीं है। ठीक है? तो आदमी की चेतना पूछती हैं, ‘भई, तू जो लालच करने जा रहा हैं, तो इससे तुझे मिलेगा क्या?’ तो वही चेतना अपनेआप को क्या समझा लेती हैं, ‘इस लालच से मुझे आगे कुछ, मुझे कुछ लाभ होने जा रहा है।’ और जैसे ही अपनेआप को समझाती है, ‘लाभ होने जा रहा है’, वैसे ही हरी झंडी मिल गई। अब कहा जाता है, ‘ठीक है भाई। अब लालच के रास्ते में आगे बढ़ो क्योंकि लालच से तो तुम्हें कुछ मिलने जा रहा है।’

ऋषि क्या कह रहे हैं यहाँ पर? ऋषि कह रहे हैं, ‘जब लालच उठे तो अपनेआप को बता देना कि इससे तुम्हें तो कुछ मिलने जा नहीं रहा है। कर्म तो करने ही पड़ेंगे लेकिन ये साफ़ रखो कि इनमें से कोई भी कर्म तुम अगर अपने लिए कर रहे हो तो मूर्ख हो। दो बातें एक साथ बोल रहे हैं। पहली बात, प्रकृति से इतना भी तुम आगे नहीं निकल सकते कि कर्म ही करना छोड़ दो। तो कर्म तो बेटा करने पड़ेंगे। जिस दिन तक देह है, जिस दिन तक इस मुँह से बात कर रहे हो, जिस दिन तक इन आँखों से देख रहे हो, उस दिन तक कर्म तो करने पड़ेंगे। लेकिन एक काम करो। ये उम्मीद छोड़ दो कि इनमें से कोई भी कर्म तुम्हें कुछ दे सकता है। अपने लिए काम करना बंद करो। ये तुम्हारी उम्मीद है न कि तुम कुछ करके कुछ पा लोगे। ये उम्मीद ही तुम्हें कर्मबंध में रखे हुए है। इस उम्मीद के कारण ही तुम बहुत बुरी तरह फँसे हुए हो। तो करना तो पड़ेगा, पर अपने लिए मत करना, अपने लिए नहीं करना। इसी भाव को ज़रा सकारात्मक तरीक़े से व्यक्त करा जाता है ये कह कर कि परमात्मा के लिए करना या कि अपने सारे कर्म परमात्मा को अर्पित कर दो। वास्तव में कहा ये जा रहा है कि अपना कोई भी कर्म स्वयं को अर्पित मत करो। भूलिएगा नहीं कि उपनिषदों का केंद्रीय भाव नकार का है।

तो क्या कहा जा रहा है? अपने लिए मत करो क्योंकि अपने लिए तुम जो भी कुछ करोगे वो करके तुम अपनी बीमारी को ही और बढ़ाओगे। अपने लिए तुम जो भी कुछ करोगे, अपनी बीमारी को ही और बढ़ाओगे। क्योंकि करने वाला ही बीमार है। करने वाला जानता ही नहीं है कि उसके लिए क्या उचित है। जब वो जानता ही नहीं कि उसके लिए क्या उचित है तो जो भी कुछ करेगा अपने अनौचित्य को ही तो और बढ़ाएगा न? जैसे कि कोई नेत्र रोगी, आँखों से अत्त-धुंधला उसको दिखाई देता है — एकदम ही, बहुत कम। सामने खंभा है या आदमी, साफ़ उसे पता नहीं चलता। वो घर से निकल पड़ा है।

‘कहाँ जा रहे हो?’

‘आँख के अस्पताल।’

‘कैसे जाओगे?’

‘देख कर जाएँगे। आँखें नहीं है क्या हमारे पास?’

ये घर से निकल पड़ा है अपनी खस्ता-हाल आँखें लेकर के, उन्हीं आँखों से रास्ता देख करके आँख का चिकित्सक ढूँढने। ये अहंकार की दशा है। जैसे कि कोई पागल निकल पड़ा हो अपना चिकित्सक तलाशने या फिर अपनी चिकित्सा स्वयं करने। अगर तुम पागल हो तो क्या तुम अपनी ही बुद्धि का, अपने ही दिमाग का इस्तेमाल करके अपने चिकित्सक तक पहुँच सकते हो? यही तो तुम्हारी समस्या है न कि तुम कुछ भी अपने लिए ठीक नहीं कर सकते। लेकिन तुम तुले हुए हो कि अपने लिए जो भी कुछ ठीक करना है वो मैं करूँगा। ये अहंकार की दशा है।

इसी मूल दशा को ध्यान में रखते हुए क्या निवारण बता रहे हैं ऋषि?

कह रहे हैं अपने लिए कुछ करो ही मत। किसके लिए करूँ? क्या करूँ? फँस गए। इंसान जिए कैसे फिर? अपने लिए न करे तो किसके लिए करें? ऋषि इस पर मूक हो जाते हैं। कहते हैं, ‘खोजो और खोजते चलो। कुछ ऐसा जो तुमसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। कुछ ऐसा जो तुम से कहीं ज्यादा बड़ा है। कुछ ऐसा जो वास्तव में पात्र है तुम्हारी ऊर्जा का, ध्यान का, निष्ठा का। उसके लिए करो, अपने लिए नहीं करना।’

और सिर्फ़ यही तरीका है खुद को खुद से रिहाई देने का। सिर्फ़ यही तरीका है अपनी बेड़िया काटने का। हमारी बेड़िया मज़बूत कैसे होती है? हमारी बेड़ियाँ मज़बूत होती है जब हम अपनी भलाई करना चाहते हैं परोक्ष रूप से। और हमारी बेड़ियाँ कटती भी परोक्ष ही रूप से हैं।

जब हम अपनी भलाई से, अपनी व्यक्तिगत भलाई से, बहुत आगे के किसी लक्ष्य को समर्पित हो जाते हैं तो पीछे से चुपचाप, हमारी बेड़ियों का विगलन शुरू हो जाता है। जैसे बेड़ियाँ भी ऊर्जा माँगती हैं। वो उर्जा तुमने किसी बहुत ऊँचे लक्ष्य को देनी शुरू कर दी तो तुम पाओगे कि तुम्हारी बेड़ियाँ पीछे से चुपचाप गलने लग गई।

उदाहरण दिए देता हूँ। तुम्हारी एक बीमारी है। वो बीमारी तुम्हें तुम्हारें दोस्तों से लगी है। बीमारी दोस्तों से लगी है। उन दोस्तों का ही नाम बीमारी है, ठीक है? बीमारी कुछ भी हो सकती है। कुछ नाम दो बीमारी का। बीमारी हो सकती है यूँही, व्यर्थ वार्तालाप जिसे बकवास कहते है, शराब खोरी और?

श्रोतागण: व्यर्थ का सोचना। बेकार चीज़ें करना।

आचार्य: हाँ, व्यर्थ का सोचना।

श्रोतागण: ज़्यादा सोना।

आचार्य: ज़्यादा सोना, ज़्यादा सोचना। ये सबकुछ तुमको दोस्तों के एक समूह के बीच रहकर के लगा है। वो दोस्त तुम्हारें साथ टिके हुए हैं क्योंकि उनके साथ समय बिताते हो। तुम उनपर पैसा खर्च करते हो। तुम उनपर ध्यान देते हो। वो तुम्हें फ़ोन करते हैं तो तुम उनकी कॉल्स उठाते हो। इतना ही नहीं, जब वो तुम्हें फ़ोन नहीं करते तो तुम अपनी ओर से कर देते हो। इसलिए ये जो पूरा हुजूम हैं, ये कायम है।

तुम्हें कुछ मिल गया इस निचली व्यवस्था से बहुत ऊँचा। इस कुरूप झुंड से कहीं सुन्दर और तुम मगन हो गए उस सुन्दरता में, उस ऊँचाई में। तुमने अपना समय भी वहाँ देना शुरू कर दिया। तुमने अपने संसाधन भी वहाँ देने शुरू कर दिए। तुम्हारी निष्ठा वहाँ बन गई। तुम अपना रुपया-पैसा भी वहीं खर्च करने लगे। तुम खाने-पीने, सोने-जगने उधर लगे। महीने दो महीने बाद क्या होगा? ये जो पीछे तुम्हारे बीमार दोस्तों का झुंड था ये अपनेआप टूट जाएगा। ऐसे टूटती हैं बेड़ियाँ, ऐसे तोड़ी जाती है बेड़ियाँ, उन पर परोक्ष प्रहार करके।

तुम अपनेआप को सही जगह निविष्ट करना शुरू कर दो। वो सबकुछ जो तुम्हारे जीवन में गलत था ऐसे ही सूख जाएगा जैसे कोई विष-बेल सूख जाती है पानी के अभाव में। सींचा नहीं उसको, वो सूख गई। तुम्हें उसे काटना नहीं पड़ा। काटना उसको बड़ा मुश्किल था। काँटेदार भी थी और आकर्षक बहुत थी। तुम उसके सामने खड़े होते, तुम्हारा दिल उसपर रीझ जाता जैसे सौ बार पहले रीझा था। तुम उसे काट नहीं पाते सक्रिय रूप से। प्रत्यक्ष रूप से उसको उखाड़ पाना तुम्हारे लिए सम्भव ही नहीं था। सुन्दर फूल थे उसपर। पर तुम कहीं और मग्न हो गये, तुम उसे पानी देना भूल गये। तुमने दो महीने उसको पानी नहीं डाला, अब वो मर जाएगी। ऐसे टूटती हैं बेड़ियाँ। तुम सही जगह समर्पित हो जाओ, तुम्हारे जीवन में जो कुछ सड़ा-गला है, जो मौजूद नहीं होना चाहिए, वो चुपचाप अपनेआप विदा हो जाएगा, तुम्हें पता भी नहीं लगेगा।

किसी दिन, किसी बहके हुए क्षण में जब तुम उसको पुकारोगे और पुकार का तुम्हारा जवाब नहीं देगा, तब तुमको पता चलेगा कि वो चीज़ तुम्हारी ज़िन्दगी से विदा हो गयी है। और तुम अनुग्रहित अनुभव करोगे, ‘अच्छा हुआ चली गई।’ इसलिए नहीं चली गयी क्योंकि तुमने प्रयत्न करके उसको भगाया। तुम्हारी बेड़ियाँ ऐसे नहीं टूटी कि तुमने आरा लेकर के लोहा काटा, वो बस गल गई।

तुम जब तक वैसे ही रहोगे जैसे तुम हो, तुम्हारी बीमारी वैसी ही रहेगी जैसी है। कोई भी व्यक्ति जानबूझ करके अपना बुरा तो नहीं करता न? हर इंसान अपनी भलाई ही कर रहा है। हर इंसान, सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी भलाई कर रहा है। और उस भलाई में ही उसकी बुराई निहित है। अब भलाई से बुराई हो रही है तो बुराई से बचने के लिए क्या करें? बुराई करने दे अपनी? एक तर्क ये हम दे सकते हैं कि नहीं दे सकते कि जो अपना भला करते हैं तो हमारा बुरा हो जाता है। तो हमें अगर अपना भला करना है तो हमें अपना बुरा करना चाहिए। ये उत्तर नहीं है! उत्तर ये नहीं है कि पहले तुम अपनी भलाई कर रहे थे, तो तुम अपनी बुराई करना शुरू कर दो।

उत्तर ये है कि पहले तुम अपनी भलाई और अपनी बुराई की बात सोचते थे। अब ये जो अपनी भलाई है न, ‘मैं’, ‘मेरी’ इससे बाज आओ।

भलाई सोचनी भी है तो अपनी नहीं, अपनी ख़ातिर नहीं। अपनी ख़ातिर तुम अपनी अच्छाई करोगे, बुराई होगी। और अगर तुम अपनी बुराई करोगे तब तो बुराई होगी ही होगी। अपने लिए तुम जो भी कुछ करोगे, वही तुम्हारा नर्क बनेगा। अपने लिए अच्छे से अच्छा करोगे तो भी बुरा ही होगा। ये बात अहंकार को चुभती बहुत है।

तुरंत हम फिर क्या प्रश्न करना चाहते है? अजी, हम इतने बेवकूफ़ हैं क्या कि अपने लिए अच्छा करेंगे और बुरा हो। ऐसा हमेशा थोड़े ही होता है। और तुम सौ उदाहरण दे दोगे। और उदाहरण के लिए — हमें जब प्यास लगती है तो उठाकर पानी पी लेते हैं। देखिए, हमने अपनी भलाई करी और भलाई हुई न? ऐसा थोड़े ही हुआ कि हमने पानी पिया और गला जल गया! देखिए आपकी बात गलत है।

साहब जिस तल पर आप उदाहरण दे रहे हैं, उस तल पर मेरी बात निश्चित गलत है। पर मैं जिस तल पर बात कर रहा हूँ, कृपा करके उस तल पर समझने की कोशिश करें। यहाँ पर बात पानी पीने इत्यादी की नहीं हो रही है।

यहाँ पर बात जीवन के केंद्रीय निर्णयों की हो रही है। जीवन में जो कुछ भी केंद्रीय है, अगर वो आपने स्वयं को दृष्टि में रखकर किया तो आपके साथ कुछ अच्छा नहीं होने वाला। आपकी भलाई आपके विस्मरण में है। खुद को भूल जाओ, खुद पर एहसान करो। खुद को भूल जाओ और खुद पर एहसान करो। जो जितना अपनेआप को याद रखेगा, वो उतना अपनेआप को बर्बाद करेगा। क्योंकि खुद को याद रखने का मतलब ही क्या हैं? मेरे सुख, मेरे दुख, मेरी ऊँच, मेरी नीच, मैंने क्या पाया, मैंने क्या गँवाया। छोड़ो तुमने क्या पाया, तुमने क्या गँवाया। और जब तुम छोड़ देते हो तुमने क्या पाया तुमने क्या गँवाया, तो अकस्मात् न जाने क्या पा जाते हो। अब इसमें भी बात सूक्ष्म है, समझिएगा।

जब हम कह रहे हैं कि जब तुम छोड़ देते हो ख्याल करना कि मैंने क्या खोया क्या पाया और अकस्मात् तुम बहुत पा जाते हो, इसका मतलब ये नहीं है कि तुम वही हो जो तुम पुराने थे। बस तुमने एक चाल खेली की अपने बारे में फिर किसी तरीके से दो हफ़्ते तक सोचा नहीं और दो हफ़्ते बाद पंद्रहवें दिन तुम बिलकुल हाथ मलते हुए गये कि अब देखता हूँ क्या पाया। नहीं ये नहीं होता!

दो हफ़्ते में तुम वो व्यक्ति ही नहीं रहते जो तुम दो हफ़्ते पहले थे। दो सप्ताह में वो व्यक्ति ही बदल गया जो पहले हानि-लाभ का विचार किया करता था। और उसे मिला क्या? उसे बदलाव मिला। उसे कोई बहुत बड़ा तोहफ़ा नहीं मिल गया। क्या मिला उसे? उसे बदलाव मिला।

तो जब मैं कह रहा हूँ कि तुम अपने बारे में सोचना छोड़ दो, ‘तुमने क्या पाया तुमने क्या खोया सोचना छोड़ दो तो तुम्हें बहुत कुछ मिल जाएगा।’ इसका मतलब ये नहीं है कि तुमको हीरे-जवाहरात मिल जाएँगे। इसका मतलब तुमको बदलाव मिल जाएगा और उस बदलाव की कीमत करोड़ों की है।

क्या प्रमाण है इस बात का कि उस बदलाव की कीमत करोड़ों की हैं? उसी बदलाव के लिए तो हम करोड़ों कमाने में लगे रहते हैं। तुम करोड़ों कमाने में लगे क्यों रहते हो? सिर्फ़ इसलिए कि काश भीतर इतना सा बदलाव आ जाएँ। जाकर किसी से भी पूछ लो जो कमा रहा हो, ‘क्यों कमा रहा है?’ वो कमाने की ख़ातिर नहीं कमा रहा, वो अपनी ख़ातिर कमा रहा है। ठीक?

ये अपनी ख़ातिर कमाने का अर्थ क्या हुआ? जो भी कमाता है अपने लिए कमा रहा है। अपनी ख़ातिर कमाने का अर्थ क्या हुआ? इसका मतलब ये है कि ये जो भीतर है न, मेरे भीतर कुछ दोष है कुछ कमी है उस कमी को ठीक करने की ख़ातिर कमा रहा हूँ। तो यानी, उस कमी को ठीक करने की कीमत क्या है? जितना कुछ भी कोई भी इंसान ज़िन्दगी भर कमा रहा हैं, उससे ज़्यादा कीमत है उस कमी की जो भीतर बैठी हुई है। क्योंकि जितना कमाया है उससे भी वो कमी पूरी होती नहीं है।

तो अगर तुमको विकल्प दिया जाए कि करोड़ों कमाए बिना ही तुम्हारे भीतर जो कमी है वो पूरी हो जाएगी, तो इस विकल्प की कीमत कितनी हुई?

श्रोतागण: करोड़ों।

आचार्य: सिर्फ़ करोड़ों में ही?

श्रोतागण: अरबों।

आचार्य: सिर्फ़ अरबों में हुई? क्योंकि तुमने अरबों भी कमा लिए होते तो भी भीतर की कमी तो पूरी नहीं होती। क्योंकि अरबों भी कमा लिए होते, तो भी भीतर की कमी पूरी नहीं होती। और अगर भीतर की कमी पूरी हो गई तो उसकी कीमत क्या हुई?

श्रोतागण: खरबों में।

आचार्य: हाँ, बिलकुल ठीक, ख़रबों में। खरबों में? अगर तुमने खरबों भी कमा लिए होते तो भी भीतर की कमी तो पूरी हुई नहीं होती। तो अगर भीतर की कमी पूरी होगी तो इसकी कीमत क्या होगी?

तो इसलिए जो होशियार लोग थे, उन्होंने कहा कि क्यों न वही काम कर ले सीधे जिसके लिए सारे काम किए जाते हैं। कोई कमाने के लिए नहीं कमाता। कोई किसी के हाथ के लिए उसका हाथ नहीं पकड़ता। कोई खाने के लिए नहीं खाता। जानवर खाने के लिए खाता है, इंसान खाने के लिए नहीं खाता है। क्योंकि इंसान अगर सिर्फ़ खाने के लिए खा रहा होता तो ये फ़ाइव-स्टार कहाँ से होता? वो कहाँ से होता बताओ? हम सिर्फ़ खाने के लिए नहीं खाते।

गाय को रोटी तुम ढाबे की दो, चाहे फ़ाइव-स्टार की दो, गाय के लिए रोटी बराबर है। लेकिन बंदे को रोटी फ़ाइव-स्टार में दो और ढाबे में दो तो वो बंदे के लिए बराबर नहीं है। माने हम तो खाते भी सिर्फ़ खाने के लिए नहीं है। खाने के साथ भी कुछ और जुड़ा हुआ है। फ़ाइव-स्टार के साथ ये भावना जुड़ी हुई है कि भीतर की कोई कमी पूरी हो जाएगी। हम तो एक-एक साँस अपनी किसी कमी को पूरा करने के लिए लेते हैं। वो कमी ही पूरी हो जाएँ तो? फिर? बोलो-बोलो? तुम्हारी गाय ज़्यादा खुश होती है तुम उसे फ़ाइव-स्टार की रोटी देती हो? लेकिन तुम ज़्यादा खुश हो जाओगी जब तुम्हें फ़ाइव-स्टार की रोटी मिलेगी। मतलब क्या है? हमारी रोटी सिर्फ़ पेट की भूख मिटाने के लिए नहीं होती। कोई और भूख है हमारे भीतर। इंसान उसी भूख का नाम है जो समझता ही नहीं कि हम कौन है। भूखा मरेगा!

भूखा वो नहीं मरता जिसके पास ज़िन्दगी में खाने को रोटी नहीं है। भूखा वो मरता है जिसके पास ज़िन्दगी को समझने की दृष्टि नहीं है। ज़िन्दगी को समझने की दृष्टि नहीं है तो फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास रोटी है या हलवा, भूखे तुम तब भी मरोगे। और जिनके पास ज़िन्दगी को समझने की दृष्टि आ गयी, हमने देखा है कि फिर वो रोटी के अभाव में भी बड़े तृप्त रह जाते हैं।

अपनी बेहतरी चाहिए तो अपनी बेहतरी के लिए कुछ मत करो। अपने शुभचिंतक हो, तो अपने शुभ की चिंता छोड़ो। तुम ये जो अपने शुभ का चिंतन करते हो, वही तुम्हारी ज़िन्दगी का अशुभ है। क्योंकि जब वो चिंतन करते हैं अपने लिए, उसका मतलब बस एक होता है। क्या? ये पा लूँ, वो पा लूँ — कामना। मुझे ये मिल जाएँ, वो मिल जाएँ।

यही कृष्ण का निष्काम कर्म हैं।

छोड़ो अर्जुन ये सब बातें। मेरा भाई, मेरे पितामह, मेरा सिंहासन, मेरा राज्य, मेरे भाव, मेरे रक्तसंबंध। तुम सच के लिए कर्म करो। वो सारी बातें छोड़ो जिसमें ‘मैं’ शब्द निहित है। यहाँ पर खड़े हो तुम — मेरी हार, मेरी जीत, मेरा अतीत, मेरा भविष्य। इन आधारों पर निर्णय नहीं ले सकते। तुम वो करो जहाँ सच्चाई है। तुम धर्म की राह चलो। तुम अपनी भलाई के लिए नहीं, तुम मेरे लिए लड़ो अर्जुन। बहुत अंतर है।

उस पूरे मैदान में एक ही था जो अपने लिए नहीं लड़ रहा था। सैनिक जितने थे वो अपनी निष्ठा और अपनी रोटी की ख़ातिर लड़ रहे थे। है न? वो तो पेशेवर सिपाही हैं। दसों सालों से उन्होंने तंख्वाह ली है। किस बात की? कि जिस दिन कहा जाएगा कि लड़ जाओ, तो लड़ जाएँगे। उनके सेनापतियों ने, उनके राजाओं ने निर्णय लिया कि हम कौरवों की तरफ़ खड़े होंगे या पांडवों की तरफ़ खड़े होंगे और सैनिक पीछे-पीछे आ गये। जिस राजा ने निर्णय लिया था पांडव की तरफ़ खड़े होने का, वही राजा आखिरी क्षण में अपना मन बदल कर कहे कि नहीं, मैं तो कौरवों के पक्ष से लड़ूँगा तो सैनिक थोड़े ही कहेंगे कि अभी तो पांडवों की तरफ़ थे अब कौरवों की तरफ़ क्यों हो रहा हो? सैनिक भी पीछे-पीछे चले आएँगे, चलो उधर चलते हैं।

सैनिक किसके लिए लड़ रहे हैं? अपने पेट के लिए लड़ रहे हैं। कह रहें हैं, ‘हमें जो तनख्वा देता हैं, जो रोटी देता हैं, उसकी आज्ञा का पालन करेंगे चुपचाप।’

दुर्योधन अपने राज्य के लिए लड़ रहा है। भीम अपने आत्म-सम्मान के लिए लड़ रहे है। भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के लिए लड़ रहे है। कर्ण अपनी कृतज्ञता के लिए लड़ रहा है। बस एक था जो नहीं लड़ना चाहता था। वो नहीं लड़ना चाहता था अपने लिए। बाकी सब लड़ना चाहते थे अपने लिए। एक था जो नहीं लड़ना चाहता था पर वो नहीं भी लड़ना चाहता था अपने लिए।

कृष्ण ने उसको समझा दिया ‘अपने लिए न लड़ना उतना ही बुरा है जितना कि अपने लिए लड़ना।’

दुर्योधन अपनी भावनाओं के कारण लड़ने को उतारूँ है। और अर्जुन तुम अपनी भावनाओं के कारण भागने को उतारूँ हो। कोई फ़र्क नहीं रह जाएगा। कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों ही कर्म अपने लिए कर रहे हो।

अब पता नहीं किस हद तक संयोग है कि जीत उसी को मिली जो इकलौता था मैदान पर, ‘अपने लिए न लड़ने वाला।‘ अपनी ख़ातिर तो वो मैदान छोड़ चुका था। युद्ध शुरू होने से पहले ही वो हट चुका था। अपनी खातिर उसका लड़ने का कोई इरादा नहीं। पर फिर भी वो लड़ा। अब वो अपने लिए नहीं लड़ रहा है। तो कृष्ण से बोल चुका था कि इनको मार करके सिंहासन मिल भी गया तो मैं क्या करूँगा? इनसे मेरा जन्म का नाता है। इनकी लाश पर राजा बनूँगा, ऐसा नहीं कर पाऊँगा कृष्ण।

अपने लिए लड़ने की बात तो उसकी खत्म थी और वो फिर भी लड़ा। ऐसे लड़ना है।

हम कौन हैं, हमें क्या मिल जाना है? और अगर हमें कुछ मिल जाना है तो उसे हमारा बोझ ही बन जाना है।

साफ़ बात है बिलकुल और प्रतिज्ञा है हमारी की इस लड़ाई से अपने घर एक पैसा लेकर नहीं जाएँगे। लेकिन आखिरी साँस तक लड़ेंगे। अपने लिए नहीं। इससे हमें कुछ मिलना नहीं है। मिलना भी है कुछ — घाव, तकलीफ़, वो ठीक है, सह लेंगे पर कोई उम्मीद नहीं हैं; किसी सुख की कोई आकांक्षा नहीं है। ये बात बड़ी अजीब है। ये बात जैसे प्रकृति के खिलाफ़ जाती हो क्योंकि प्रकृति ने हमें रचा है सबकुछ हमारे प्राकृतिक स्वार्थों हेतु ही करने को। हम रचे ही ऐसे गये हैं। कोई भी इंसान किधर को भी एक कदम बढ़ाएगा ही नहीं अगर उधर उसके स्वार्थ न हो। हम रचे ही ऐसे गए हैं।

लेकिन अगर हम ऐसे ही जी रहे तो फिर याद कर लो हममें और पशु में कोई अंतर नहीं क्योंकि ये काम पशु का है — किसी दिशा में तभी चलो जब वहाँ पर दाना-पानी, घास, सब्ज़ी, फल-फूल या शिकार दिखाई दे। ये काम किसका है? ये जानवर का है।

अगर आप भी ऐसे ही हैं जो किसी दिशा में कदम तभी बढ़ाते हैं जब उस दिशा में आपके लिए कोई स्वार्थ है तो आपमें और पशु में कोई अंतर नहीं है। लेकिन अंतर होना तो चाहिए न? नहीं तो हम काहे को बोलते हैं कि हम तो इंसान हैं, इंसान हैं। काहे को बोलते हैं कि मनुष्यों की चेतना पशुओं की चेतना से श्रेष्ठ होती है? कुछ तो फ़र्क होगा। फ़र्क हो ये ज़रूरी नहीं है। पर ये आपको विकल्प मौजूद है कि आप फ़र्क बनाए और फ़र्क बनाना धर्म है आपका।

मैं उधर को ही नहीं चल देता जिधर को मेरी वृत्तियाँ और वासनाएँ ढकेलती हैं मुझको। मैं चैतन्य हूँ। वो चेतना ही मेरी पहचान है। मैं रुकता हूँ, मैं ठहरता हूँ, मैं पूछता हूँ और मेरे सवाल का जवाब अगर यही आता है कि चलो उधर को क्योंकि उधर सुख है तो मैं बस मुस्कुरा देता हूँ और उधर को चल देता हूँ जिधर सुख हो ना हो पर धर्म ज़रूर है। सुख की तरफ़ तो हर जानवर बढ़ता है। स्वार्थ की तरफ़ तो कोई भी आकर्षित हो जाता है।

न सुख, न स्वार्थ, मेरा काम परमार्थ।

जिनको बात नहीं समझ में आती, जो फिर भी पूछते रहते हैं कि परमार्थ में तुम्हे क्या मिला, तुम्हें क्या मिला, तुम्हें क्या मिला? उनको टालने के लिए हम बोल देते हैं — आनंद मिला। मिला तो कुछ नहीं। पर लोग कोंचते हैं। व्यर्थ के सवाल पूछते हैं। पूछते हैं अगर तुम्हें कुछ मिल नहीं रहा तो कर क्यों रहे हो, कर क्यों रहे हो, कर क्यों रहे हो? तो उनको उत्तर में एक झुनझुना थमा देते हैं। किस नाम का? आनंद नाम का। कहते हैं हमें आनंद मिल रहा है। वो कहते हैं आनंद मिल रहा है!

अजी, आनंद मिल रहा होता तो वो भी एक स्वार्थ ही हो जाता न? हमें कुछ नहीं मिल रहा हैं। पर ये बात हमारे जैसों को ही समझ में आएगी। तुम्हें समझ में नहीं आएगी। तुम झुनझुना बजाओ और तब तक बजाओ झुनझुना जब तक तुम्हें नशा न हो जाए और तुम सो न जाओ। क्योंकि तुम्हारी ज़िन्दगी का कुल यही सार है, नशा और नींद।

हम क्या कर रहे हैं, हम किधर को जा रहे हैं, हम जी क्यों रहे हैं, ये तुम्हें समझ में नहीं आएगा क्योंकि वो बात समझ से आगे की है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org