तुम बस कृष्ण को चुन लो, बाकी वो चुन लेंगे

तुम बस कृष्ण को चुन लो, बाकी वो चुन लेंगे

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
— श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २२

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करते हुए मुझे यह प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं हूँ वह मेरा ही चुनाव है। पहले मुझे लगता था कि जब सारे विकल्पों का मुझे पता ही नहीं तो चुनाव किस बात का। पर अब दिखता है कि चुनाव तो मेरा ही है। लेकिन मैं इंद्रियगत बुद्धि के अनुसार ही चुनाव करता हूँ। क्या कोई उपाय है बुद्धिगत छवि, स्मृतियों से पार जाने का और फिर उन विकल्पों को जीवन में उतारने का? या फिर बुद्धि को ही गहन बनाने की कोशिश करते रहना है?

आचार्य प्रशांत: पार के समाचारों से संबंध रखा करो। जो पार की ख़बर बार-बार सुनता रहता है, उसका संसार बड़ा निर्मल हो जाता है। बुद्धि फिर साफ़ करनी नहीं पड़ती, बुद्धि पार में तुम्हारे सम्मिलन के सह-उत्पाद के रूप में स्वयं ही स्वच्छ हो जाती है।

देखो, बुद्धि की सफ़ाई की अगर तुम कोशिश करोगे भी तो अपनी बुद्धि के अनुसार ही करोगे न? तो बुद्धि ही बुद्धि की सफ़ाई कर रही है, और बुद्धि ही अगर गड़बड़ है तो क्या सफ़ाई करेगी अपनी? जैसे कि कोई पागल आदमी अपने पागलपन का इलाज अपनी पागल बुद्धि के अनुसार करना चाहता हो। कैसा चलेगा इलाज? वह पागल…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org