तुम कभी मरते नहीं!
एको हि रूद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभि:। प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति संचुकोपान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपा:॥
वह एक परमात्मा ही रूद्र है। वही अपनी प्रभुता-सम्पन्न शक्तियों द्वारा सम्पूर्ण लोकों पर शासन करता है, सभी प्राणी एक उन्हीं का आश्रय लेते हैं, अन्य किसी का नहीं। वही समस्त प्राणियों के अन्दर स्थित है, वह सम्पूर्ण लोकों की रचना करके उनका रक्षक होकर प्रलयकाल में उन्हें समेट लेता है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् ( अध्याय ३, श्लोक २)
आचार्य प्रशांत: कुछ कहीं आना नहीं, कुछ कहीं जाना नहीं, जो है वास्तव में वो तो रहता-ही-रहता है। एक व्यक्ति छोड़ दो, एक जगह छोड़ दो, एक ग्रह छोड़ दो, एक आकाश गंगा छोड़ दो। पूरा-का-पूरा ब्रह्मांड भी अगर अभी विलुप्त हो जाए, तो भी सत्य पर खरोंच तक नहीं आनी है।
अस्तित्व आते जाते रहते हैं, न जाने कितने अस्तित्वों को श्रंखलाबद्ध रूप से अनअस्तित्व में बदलते देखा है काल की धारा ने। सत्य कालातीत है, वो अक्षुण्ण रहा है, उसे कौन बदलेगा। क्यों? क्योंकि बदली तो वो चीज़ जाएगी न जो चीज़ हो, बदला तो वो जाएगा न जिसकी कोई हस्ती हो, बदला तो वो जाएगा न जो संसार के भीतर हो; संसार के भीतर होता तो अन्य संसारी वस्तुओं की तरह उसको भी विलुप्ति का खतरा होता।
बड़े-से-बड़ा भय अब तुम्हें क्या सताएगा जब तुम्हें यह भय भी नहीं रहा कि पूरा ये ब्रह्मांड ही नहीं रहा तो मेरा क्या होगा।
सत्य का मतलब होता है ऐसी जगह अवस्थित हो जाना कि तुम्हारे आसपास सब कुछ भस्मीभूत भी हो जाए, तो भी तुम्हें किंचित अंतर ना पड़े केंद्र पर। बाहर-बाहर व्यवहार के चलते, करुणा के चलते, धर्म के चलते, तुम हर तरीके से अपना दायित्व निभाओगे। दायित्व निभाओगे पर निष्काम भाव से।
सब कुछ बच गया तो भी तुम्हें कुछ नहीं मिला, और सब कुछ मिट गया तो भी तुम्हारा कुछ नहीं गया, क्योंकि तुम वहाँ पर हो जहाँ कोई हानि-लाभ हो नहीं सकता। तुम कोशिश भी कर लो, तो भी जगत की क्षणभंगुरता को तुम बहुत गंभीरता से ले नहीं सकते। कह रहे हो ‘ये तो जैसे जुगनू का चमकना, जैसे भोर का तारा − अभी है, अभी नहीं। मैं कितना दिल लगाऊँ इसके साथ? और मैं पहला हूँ जो होकर नहीं होगा? और ये पहले हैं जो होकर नहीं होंगे?’
जीवन को सिर्फ़ सत्य की अभिव्यक्ति की तरह देखना बहुत ज़रूरी है अगर जीना चाहते हो। और मृत्यु को सिर्फ़ एक निकास की तरह देखना, जैसे रंगमंच पर कोई पर्दे के पीछे चला गया हो, नेपथ्य में छुप गया हो, बहुत आवश्यक है अगर मृत्यु के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखना है।
भारत ने बहुत सारी बातें समझी थीं। इसीलिए यहाँ आमतौर पर मृतक को कहते हैं ‘ब्रह्मलीन हो गए’। यह नहीं कहा जाता मर गए, ब्रह्मलीन हो गए या समाधिष्ट हो गए, या कहते हैं कि अब वो अपने पार्थिव शरीर में नहीं रहे। ये नहीं कहा जाता कि उनकी हस्ती मिट गई, कि अब वो रहे ही नहीं। हालाँकि, नादान लोग ऐसी भाषा का भी इस्तेमाल कर देते हैं कि फलाने अब नहीं रहे। लेकिन ज़्यादा सांस्कृतिक भाषा यही रही है कि ब्रह्मलीन हो गए या शरीर में नहीं रहे अपने, या देह त्याग कर दिया। देह त्याग करा है, विलुप्त नहीं हो गए हैं, बस देह का त्याग करा है।
तुम वो हो जो विलुप्त हो ही नहीं सकता। अपने प्रति जब यह आश्वस्ति रहती है तो वो आश्वस्ति ही शुद्धता का उपकरण बन जाती है। वही आश्वस्ति फिर जीवन को निर्मल कर देने का यंत्र बन जाती है। कैसे? तुमने तो कह दिया कि ‘मैं वो हूँ जो अब विलुप्त हो ही नहीं सकता’। अब बताओ फिर उन चीज़ों के साथ अपनी पहचान कैसे जोड़ोगे जो साफ़-साफ़ प्रामाणिक तौर पर विलुप्त हो ही जाती हैं, हो ही रही हैं, अब कर पाओगे?
अगर तुमको सच्चाई से, ईमानदारी से यह मानना है कि तुम वो हो जो विलुप्त हो ही नहीं सकते, तो तुम कैसे कह दोगे कि तुम्हारी पहचान किसी ज़मीन के टुकड़े से जुड़ी हुई है, किसी कपड़े से जुड़ी हुई है, किसी बैंक के खाते से जुड़ी हुई है, किसी विचारधारा से जुड़ी हुई है, कैसे कह दोगे?
क्योंकि ये दोनों बातें अब बेमेल हो गई हैं न। तुमने कहा तुम वो हो जो विलुप्त हो नहीं सकते और ये सब चीज़ें जिनसे तुम अपने-आपको जोड़ रहे हो, ये वो हैं जो विलुप्त होनी-ही-होनी हैं।
तो इसलिए अगर तुमने इस बात को पकड़ लिया कि तुम वो हो जो विलुप्त हो नहीं सकता, तो तुमको उन सब चीज़ों पर अपनी पकड़ स्वयमेव ही छोड़नी पड़ेगी जो विलुप्ती के कगार पर रहती हैं सदा। जिनका धर्म ही है, जिनकी प्रकृति ही है विलुप्त हो जाना, उन चीज़ों के साथ अब तुम कोई हार्दिक संबंध नहीं बना पाओगे। इसलिए मैंने कहा कि ये सूत्र कि ‘अमर हूँ मैं’, जीवन में शुद्धि का भी सूत्र है।