तुम्हें ज़िन्दगी की पहचान होती तो ऐसे होते तुम?
मोहे मरने का चाव है, मरूं तो हरि के द्वार। मत हरि पूछे को है, परा हमारे बार॥
~ संत कबीर
आचार्य प्रशांत: मोहे मरने का चाव, मरूं तो हरि के द्वार
“धार्मिक हूँ, आध्यात्मिक हूँ, समझ गया हूँ कि, समर्पण के सिवा कोई रास्ता नहीं है। समझ गया हूँ कि जिसको मैं अपना होना कहता हूँ वही सारे दुखों का कारण है तो इसलिए मरना चाहता हूँ”, मरने का अर्थ है — पूर्ण विराम, ख़त्म होना, किसका ख़त्म होना? दुःख का ख़त्म होना।
“मोहे मरने का चाव, मरूं तो हरि के द्वार।”
और हरि के द्वार पर ही स्वयं को विसर्जित करना चाहता हूँ, लेकिन जो दूसरी पंक्ति है वो बात को कुछ उलझा देती है —
“मत हरि पूछे को है, परा हमारे बार।”
पर हरि हैं कि ध्यान ही नहीं दे रहें हैं कि, ये कौन है जो इतनी कशिश से, इतनी श्रद्धा से आया है अपने आप को समर्पित कर देने के लिए, अपनी आहुति चढ़ा देने के लिए।
ऐसा होना ही है।
जब भी कभी हरी को विषय बनाया जाएगा, तो पाया जाएगा कि जैसे बाकी सारे विषय निर्जीव हैं, मुर्दा हैं, कठोर हैं, काल्पनिक हैं, वैसे ही हरि भी कठोर, काल्पनिक और निर्जीव हो गए।
जैसे कि कोई दीवार आपसे प्रेम नहीं कर सकती, जैसे कि कोई पत्थर आपके प्रणय निवेदन का उत्तर नहीं दे सकता, ठीक उसी तरीके से आप पाएँगे कि हरि से भी आपको कोई प्रेम नहीं मिल रहा है। मत हरि पूछे को है — हरि ध्यान ही नहीं दे रहे, हरी…