तुम्हारे साथ हो वही रहा है जो तुमने तय करा है!
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आप कहते हैं “प्रतिक्षण आपके साथ बिलकुल वही हो रहा है, जो गहरे में आपकी इच्छा है।”
आचार्य प्रशांत: आपकी इच्छा है; आपका विचार है, ये नहीं कह रहा हूँ। आपकी इच्छा है। अब इसके आगे सवाल क्या है ये पूछो।
प्र: विचार के मध्य ये जो दोहरा मापदंड है, ये क्यों है? इच्छा अगर दुख की है, तो फिर हम यहाँ पर क्या कर रहे हैं? या एक वो जो दूसरा आकर्षण रहता है कि दुख से हटो, दुख से हटो। वो क्यों है फिर? वो कहाँ से उठता है, वो क्या है?
आचार्य: तुम कंप्यूटर इंजीनियर हो न। तो पॉइंटर्स (संकेतक) जानती हो? स्टैक्स (एक संरचना में वस्तुओं का संग्रह) भी जानती हो, ठीक है। तुम पॉइंटर हो। क्या हो? पॉइंटर। और एक स्टैक है।
स्टैक क्या होता है? एक के ऊपर एक चीज़ें रखी हुई हैं। एक के ऊपर एक, एक ढेर है, ठीक है? और वो जो पॉइंटर होता है, वो क्या करता है, वो किसी भी एड्रेस पर प्वांइट कर सकता है, ठीक है न। ये जो पॉइंटर है इसका नाम है ‘अहम्’। इस पॉइंटर का क्या नाम है? अहम्।
और ये जो स्टैकिंग हुई है पूरी, ये जो ढेर लगा हुआ है, ये चित्त के अलग-अलग तल हैं। सतही तल है, फिर थोड़ा सा मध्यमी तल है, फिर एक गहरा तल है, और फिर अतल है जिसे क्या कहते हैं — आत्मा। उस अतल पर सारे तल खड़े हुए हैं, ठीक है न। तो तुम जिधर को पॉइंट करो, तुम्हें वही मिल जाएगा। तुम किस तल पर जीवन बिता रहे हो, इससे निर्धारित हो जाएगा तुम्हें मिल क्या रहा है।
वृत्ति का नाम है दुख। या ऐसे कह लो उस पॉइंटर के वृत्ति से रिश्ते का नाम है दुख। ये जो ‘मैं’ नाम का पॉइंटर है, जब ये वृत्ति की ओर पॉइंट करता है, तो उस रिश्ते का नाम होता है दुख।
वही पॉइंटर थोड़ा और नीचे चला जाए, तो किसकी ओर पॉइंट करेगा? अतल की ओर। उसका नाम है आनन्द। दिक्क़त बस ये है कि वो पॉइंटर जब नीचे को पॉइंट कर रहा होता है, तो पॉइंटर ही विलुप्त होने लग जाता है। तो इसीलिए आनन्द कोई अनुभूति नहीं बन पाता।
आनन्द एक रिक्तता होता है। आनन्द ऐसा होता है जैसे अहम् अपने से ही मुक्त हो गया हो। एक राहत है। तो जब मैं कह रहा हूँ कि तुम्हें वही मिलता है जीवन में, जो तुम चाहते हो, तो मैं बात कर रहा हूँ चुनाव के तुम्हारे अधिकार की।
मैं कह रहा हूँ कि ये जो पूरा स्टैक है (हाथ से इशारा करते हुए), ये जो पूरा ढेर लगा हुआ है यहाँ पर, इसमें से किसी को भी चुन लेना तुम्हारे अधिकार की बात है, तुम किसको चुन रहे हो। और जिसको तुम चुनोगे, तुम्हारा जीवन वैसा ही, उसी तल का हो जाएगा। ये तुम निर्धारित करो, तुम्हें किसे चुनना है।
इसीलिए अध्यात्म में रोने-कलपने की, शिकायत करने की, या अपनेआप को शिकार या शोषित बताने की कोई जगह होती नहीं। अध्यात्म जिस मूल समझ पर खड़ा है, वो ये है कि रो मत भाई।
तुम्हारे साथ जो भी बीत रहा है, वो तुम्हारा चुनाव है। रो क्यों रहे हो!
हाँ, तुम ये कहो कि तुममें इतनी विनम्रता आ गयी है, तुम समझने लग गये हो कि तुम आज तक ग़लत चुनाव कर रहे थे, तो हम बात कर सकते हैं। पर अगर तुम ये बताओगे कि नहीं-नहीं-नहीं, मेरे साथ तो ग़लत हुआ, मैं तो परिस्थितयों का मारा हुआ हूँ, हाय-हाय! हाय-हाय! तो अध्यात्म कहेगा, ‘बाहर जाकर के हाय-हाय करो।’
कोई ग्रंथ देखा है जिसमें सूत्र हो ‘हाय-हाय’? और फिर नीचे दोबारा ‘हाय-हाय’? कोई दोहा, कोई श्लोक ऐसा पढ़ा है कि हाय-हाय और हाय-हाय? ऐसा तो कुछ है नहीं। यहाँ बात बल की है, प्रखरता की है, ओज और आत्म की है। है न? हमारी ज़िन्दगी, हमारा अख़्तियार।
तो क्या कह रहा हूँ मैं? प्रतिक्षण आपके साथ बिलकुल वही हो रहा है, जो गहरे में आपकी इच्छा है।’ अब तुम्हारा पॉइंटर जाकर के अटक ही गया है किसी गहरी, अंधेरी, आदिम वृत्ति पर, तो तुमने अपने लिए तय कर लिया है कि दुख मिलेगा। अब ऊपर-ऊपर से तो तुम कभी मानोगे नहीं कि मैंने ही अपने लिए दुख तय किया है, इतनी ईमानदारी हममें होती नहीं। तो हम अभिनय यूँ करेंगे जैसे कि हमें तो चाहिए सुख।
ये वैसी-सी बात है कि तुमने स्विगि से मँगा लिया है अपने लिए गरमा-गरम मांस और अभिनय ये करो कि मैंने तो जी खिचड़ी ऑर्डर करी है। तुम कुछ भी अभिनय करते रहो, तुम्हें डिलीवर क्या होगा? मांस। हम ऐसे ही हैं। हमें डिलीवर वही होता है जो हम ही ने ऑर्डर करा है। पर वो जब आ जाता है तो कहते हैं, ‘उफ्फ! माँ, मेरे साथ क्या हो गया।’
कुछ नहीं हो गया बेटा, जो मँगाया था वो आ गया, और आपने अभी-अभी उसका भुगतान भी किया है, वो रसीद भी देकर गया है। आपने ही मँगाया था इसलिए आया है, अब ज़्यादा भोले मत बनिए।
बात समझ में आ रही है?
आपका विचार है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ; आपकी इच्छा है जो फलित होती है। तो विचार तो ये हो सकता है कि दलिया मँगाया है मैंने, लेकिन ऑर्डर आप वास्तव में वही करोगे जो आपकी इच्छा है, गहरी इच्छा। और वो इच्छा किस बात से प्रमाणित होती है, सत्यापित होती है? पॉइंटर से (ऊँगली से इशारा करते हुए)। क्योंकि पहली इच्छा आपकी यही है कि आप पॉइंट कहाँ को कर रहे हैं।
उसको आपने जहाँ अटका दिया, अपने संकेतक को, अपने पॉइंटर को, उसी के अनुसार आपके जीवन में घटनाएँ घटने लगेंगी। आप भले ही फिर ऊपर-ऊपर किसी भी तरह का आश्चर्य व्यक्त करो कि मेरे साथ ऐसा क्यों होता है, मैं ऐसा चाहती नहीं पर मेरे साथ हो जाता है। पर उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, हो वास्तव में वही रहा है जो तुमने निर्धारित करा है। तुम अपनी कहानी के लेखक स्वयं हो।
‘आचार्य जी, ईश्वर ने नहीं लिखी है हमारी कहानी?’ उसका कहानियों में कोई रस नहीं है। कहानी तो फंतासी होती है, लच्छेबाजी। क्या करेगा परमब्रह्म कहानियों में रस लेकर के! कहानियाँ सब कहाँ से उठती हैं? तुम्हारे ही मन के अनेक तलों से। जब सब कहानियाँ बच्चों तुम्हारी ही हैं, तो अच्छी कहानी लिखो न। और ये तो कभी कह ही मत देना कि मेरी कहानी सड़ी हुई है, और इस सड़ी हुई कहानी का ज़िम्मेदार वो ऊपरवाला है।
मैं कह रहा हूँ न वो बुरी कहानी लिखता है, वो अच्छी कहानी भी नहीं लिखता। उसका किसी कहानी से, किसी कथा से, किसी कल्पना से कोई सरोकार नहीं है। कलम उसने किसके हाथ में रख दी है? तुम्हारे हाथ में रख दी है। तुम्हें जो लिखना हो, लिखो।
प्र: इन दोनों में यानी कि कोई असमानता है। ये चुनाव करते वक़्त अपने विचारों को और अपने चुनाव को एकसाथ देख नहीं सकता है। ऐसी परिस्थिति में फिर क्या करें?
आचार्य: इसकी असमानता ऐसी है समझ लो कि कोई हो जो जाए और आपनेआप को एचआइवी का इंजेक्शन लगा आये। और फिर घर वापस आकर ख़ूब नहाये-धोये, साफ़-सुन्दर कपड़े पहने। डिसइन्फेक्टेंट (कीटाणुनाशक) का प्रयोग करे, घर में एक मक्खी, एक मच्छर न घुसने दे। पूरे मोहल्ले में घोषणा करे कि स्वच्छता बड़ी बात है, सफ़ाई होनी चाहिए।
तो विचार के तल पर तो ये व्यक्ति क्या चाह रहा है? स्वच्छता। ये चाह रहा है गन्दगी और संक्रमण से मुक्ति। ये चाह रहा है न? और ये करके क्या आ गया है? ये कर क्या आया है? इसने पॉइंटर पर क्या लगा दिया है?
हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं। चुपचाप हम अपनेआप को संक्रमण का इंजेक्शन लगाते रहते हैं किसी अंधेरे-कोने में। और फिर बाहर निकलकर के बहुत पाक-पावन हो जाते हैं, ख़ूब नहाते हैं, ख़ूब धोते हैं डेटॉल से हाथ।
‘अरे! देखो इस दीवाल में कहीं पर कुछ गन्दा है, साफ़ करो, साफ़ करो, साफ़ करो।’ अब तुम बताओ कि विचार क्या है? और इच्छा क्या है?
विचार और वृत्ति में अंतर समझ रहे हो? जिसको मैंने यहाँ इच्छा कहा है, वो मैं गहरी वृत्ति की बात कर रहा हूँ। वैचारिक तल पर तुम क्या चाह रहे हो? सफ़ाई। वैचारिक तल पर तुम चाह रहे हो स्वच्छता, और वृत्ति के तल पर तुम चाह रहे हो संक्रमण। मिलेगा क्या?
दोनों मिलेंगे। बाहर-बाहर स्वच्छता और भीतर संक्रमण; दोनों मिलेंगे। हमें दोनों मिलते हैं। वैचारिक तल पर जो हम चाहते हैं, वो हमें बाहर–बाहर मिल जाता है। और वृत्तिगत तल पर जो हम चाहते हैं, वैसी हमारे मन की दशा हो जाती है।
‘मैं’ के बारे में जानने के लिए मेरी ओर मत देखो, किसी भी इंसान की ओर देख लो। इंसान जो कुछ कर रहा है वही तो ‘मैं’ की करतूत है न। तो देखो लोग क्या करते हैं, वहीं तुम्हें पता चल जाएगा कि इस ‘मैं’ की प्रकृति क्या है। पता चल जाएगा कि नहीं चल जाएगा?
प्र: चल जाएगा।
आचार्य: हाँ, तो बस। तो जो मैंने कहा लोग वैसा करते हैं कि नहीं करते हैं?
प्र: करते हैं।
आचार्य: हाँ, तो ‘मैं’ ऐसा ही है। कि जैसे कोई दिनभर उपवास करे, दिनभर उपवास करे। और रात को जब सो जाएँ सब और कहीं किसी को पता न लग रहा हो, तो ट्वेन्टीफ़ोर सेवन में जाकर के चीज़ बर्गर दो-तीन साफ़ कर आये। हम ऐसे होते हैं। लोग ऐसे होते हैं कि नहीं होते हैं, बोलो?
तो बस यहीं से समझ लो कि हमारे प्रकट इरादे कुछ और होते हैं और प्रछन्न वासनाएँ बिलकुल दूसरी होती हैं।
खलिल जिब्रान की एक कहानी है, सुनोगी? माँ बेटी की कहानी है, माँ और बेटी। तो एक थी माँ, और एक थी बेटी। और दोनों को नींद में चलने की आदत; चलें और बोलें। तो एक रात ऐसा हुआ कि माँ-बेटी दोनों नींद में चलने लगीं और चलते-चलते जाकर के बाहर बगीचे में टकरा गईं एक-दूसरे से। अभी नींद में हैं दोनों। जब नींद में हो तो तुम्हारी जो चेतना के जाग्रत तल हैं, वो अभी निष्क्रिय हैं, वो अभी सोये पड़े हैं। जब तुम नींद में होते हो तो क्या सक्रिय हो जाती हैं? गहरी, वृत्तियाँ; नींद में वो सक्रिय हो जाती हैं।
तो ये माँ-बेटी जाकर के बाहर बगीचे में टकरा गईं। दोनों अभी नींद में ही हैं, और लगीं एक-दूसरे को गरियाने। बेटी बोल रही है, ‘तेरी वजह से मेरी ज़िन्दगी ख़राब हुई है, तेरी जैसी माँ किसी दुश्मन को न मिले!’ चुनिंदा गालियाँ।
अब ये कहानी खलिल जिब्रान और आचार्य जी, दोनों की हो गयी। आचार्य जी ने भी अब अपना. . .। (श्रोतागण हँसते हैं) उसके बिना मैं आगे बढ़ नहीं पाता, कुछ तो मिलाना पड़ता है न।
और माँ ने भी बढ़िया खरी-खोटी सुनायी।
एक तो हॉस्टल में छ: साल बिताने का नतीजा ये होता है कि जैसे ही कोई बात व्यक्त करनी होती है खरी-खोटी वाली, कि इतिहास सक्रिय हो जाता है। वो सब चुनिंदा अल्फ़ाज़, जो बीटेक और एमबीए में बिलकुल ज़बान पर रहते थे, वो दोबारा मचलने लगते हैं। खैर कोई बात नहीं।
तो माँ भी अब कह रही है कि तू पैदा हुई, तेरी वजह से मुझे पचास तरह की ज़िम्मेदारियाँ लेनी पड़ीं। तू मेरी खाल का कोढ़ है, तू ये है, तू वो है, जो भी। तो ये अपना गाली-गलौज चल रही है, चल रही है, और तभी सुबह हो जाती है, मुर्गा बोलता है ‘कुकड़ू-कु’, दोनों जग जाती हैं। और जगते ही बिटिया कहती हैं, ‘ओ माँ! तुम यहाँ क्या कर रही हो बाहर ठंड में? तुम्हें कुछ हो गया तो मैं जियूँगी कैसे?’ और माँ कहती है, ‘बेटी, ये कोई तरीक़ा है रात में ऐसे बाहर आने का! तेरी ख़ातिर जीती हूँ, तुझे किसी की नज़र लग गयी तो मैं तत्काल मर जाऊँगी।’
ये आदमी का जीवन है, ऊपर-ऊपर कुछ और, और अंदर-अंदर बिलकुल कुछ और।
और जो आदमी के मन के इन तलों को, इन स्टैक्स को नहीं समझता, वो धोखे में रह जाएगा। वो बस अपने आचरण को देखेगा ऊपर-ऊपर से और उसको लगेगा कि मैं तो अच्छा ही आदमी हूँ। वो कभी समझ ही नहीं पाएगा कि उसके मन की गहराइयों में कौन-कौन से राक्षस पल रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान का बड़ा योगदान रहा है आदमी के मन को वैज्ञानिक तरीक़े से समझने में। फ्रायड ने, यंग ने आदमी का जो सोया हुआ मन है, जो प्रसुप्त मन है, अचेतन या अर्धचेतन मन है, उस पर ख़ूब काम किया। जो बातें मैं अभी यहाँ पर कह रहा हूँ, इनसे वो बिलकुल सहमत रहते।
गहराई में हमारा पॉइंटर कहीं और होता है, और ऊपर-ऊपर से हमारा प्रदर्शन बिलकुल कुछ और होता है। और मैं समझा रहा हूँ कि आपके साथ वो नहीं होगा, जिसकी बात आप ऊपर-ऊपर कर रहे हो, आपके साथ वो सबकुछ होगा जो गहरे-गहरे आपने निश्चित कर दिया है।
ये गहराई वाले मामले का फिर समाधान क्या है?
सामाजिक तल पर माना गया कि अगर विचारों के तल पर कुछ गड़बड़ दिख रही है, तो उसका इलाज है बेहतर विचार। कहा गया, ‘कुविचार का इलाज हैं सुविचार।’ अब आदमी की पकड़ में विचार से ज़्यादा तो कुछ है ही नहीं, वृत्ति पर तो उसका बस चलता नहीं। तो नासमझ लोगों ने ये तरीक़ा निकाला कि वृत्तियों को काटने के लिए भी विचार का सहारा लो। उन्होंने कहा, ‘अच्छा सोचो, अच्छा सोचो। बेहतर सोचो। या अगर ग़लत सोच रहे हो तो सोचना बन्द करो। सोचना बन्द करो, सोच का दमन करो।’ न।
वृत्ति विचार से नीचे बैठी है, वृत्ति विचार की अम्मा है। विचार वृत्ति को नहीं जीत पाएगा। वृत्ति को जीतने के लिए कोई चाहिए जो वृत्ति से भी गहरे बैठा हो। यहाँ अध्यात्म की उपयोगिता है।
विचार, विचार से नीचे है वृत्ति — और ये विचारों के भी कई तल होते हैं। सतही विचार होता है, फिर गहरा विचार होता है, फिर ये होता है, फिर वो होता है। वृत्तियों के भी कई तल होते हैं, पूरा स्टैक है। और इन सबमें मैंने कहा था कि इन सब तलों से नीचे एक अतल बैठा हुआ है, उसका क्या नाम? आत्मा।
तो वृत्ति को अगर जीतना हो तो वृत्ति से नीचे जाना पड़ेगा, आत्मा तक जाना पड़ेगा, यही अध्यात्म है। और मात्र वही तरीक़ा है स्वयं को जीतने का, मात्र वही तरीक़ा है स्वयं के परिशोधन का। उसके अलावा कोई नहीं।
प्र: ये जो आप बोल रहे हैं, ‘आत्मा तक जाना पड़ेगा’, कृपया इसे स्पष्ट करें।
आचार्य: गहराई में जाना पड़ेगा। ऐसे समझ लो व्यावहारिक तौर पर कि अपनेआप को सिर्फ़ सतह-सतह पर नहीं देखना पड़ेगा, पूरी जान लगा देनी पड़ेगी। कह देना पड़ेगा कि मुझे सच चाहिए। ये जो सच की साधना है, यही तो अध्यात्म है न।
कहना होगा कि ऊपर-ऊपर जो मुझे दिख रहा है, मुझे उस पर बहुत भरोसा नहीं है। हक़ीक़त क्या है मेरी, मुझे ज़रा ये पता करने दो। और उसके लिए तरीक़े हैं — अवलोकन, तरीक़ा है प्रयोग, और तरीक़ा है श्रवण। सब तरीक़ों का इस्तेमाल करो। अपनेआप को देखो भी, अपने ऊपर प्रयोग भी करो, और अपने बारे में जो ज्ञान मिल सकता है किसी और से सुनने से, उसको सुनो भी। सब तरीक़ों का इस्तेमाल करो।