तुम्हारे लिए जगत न मिथ्या है, न मिथ्या कहो
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प्रश्नकर्ता(प्र): सर, कई बार एसा होता है कि ये जो बात है कि माइंड जो कुछ भी दिखा रहा है वो सब झूठ है, इसको माइंड नकार देता है। पर फिर बैठ के सोचते हैं तो इस दुनिया का कोई आधार भी समझ नहीं आता।
आचार्य प्रशांत(आचार्य): नहीं, ‘झूठा’ जो है न, वो तो मन की एक परिकल्पना होती है। जब आप मन को कोई चीज़ बोलते हो कि झूठी है, तो वो उसको उसी अर्थ में जांचता है जिस अर्थ में उसने ‘झूठा’ शब्द समझ रखा है। अब आप ‘झूठा’ आमतौर पर किसको बोलते हो? जो कि गैर-तथ्यात्मक है। जब कोई गैर-तथ्यात्मक बात करता है, तो आप क्या बोलते हो? “तू झूठा है।” (एक ऊँगली दिखाते हुए) ये दो उंगलियाँ है, तो आप मुझे बोलोगे?
प्र: झूठा है।
आचार्य: तो अभी आप सत्य के लिए थोड़ी ही ‘झूठा’ शब्द इस्तेमाल कर रहे हो। आप झूठा किसके लिए बोल रहे हो?
प्र: गैर-तथ्यात्मिक बात को।
आचार्य: अब आप बोलो कि ये जगत झूठा है, तो जगत तथ्यात्मिक है कि नहीं है? और आप बोल रहे हो कि झूठा है। तो ये तो आपने अपनी परिभाषा ही गलत कर दी न। आप जो झूठा शब्द इस्तेमाल करते हो, वो क्या जांचने के लिए इस्तेमाल करते हो? तथ्य। अब आप बोलो कि जगत झूठा है, तो ये बात गलत है। बिल्कुल गलत है। जगत को झूठा नहीं बोला जा सकता, जगत को बस यही बोला जा सकता है कि ऐसी-ऐसी इसकी प्रकृति है, ऐसा है। इन्द्रियगत है, द्वैतवादी है। झूठा बोलेगे तो परिभाषाओं में टकराव हो जाता है, पहले से एकत्रित की हुई परिभाषा से टकराव हो जा रहा है। अर्थ सम्बंधित परेशानी है। समझ रहे हैं न?
झूठे की क्या परिभाषा है? ‘झूठ’ को परिभाषित करो? जब कुछ गैर-तथ्यात्मक होता है, तो हम उसे झूठा बोल देते हैं। अब क्या जगत तथ्य है या नहीं? तो आप उसे झूठा कैसे बोल सकते हैं? इसलिए मन विरोध करता है। तो उसको झूठा मत कहिये न। कोई सही शब्द पकड़ लीजिये। ‘अप्रक्षेपित जगत’। अब ठीख है। यह ‘अल्पकालिक जगत’। अब भी ठीक है। यह ख्वाब जैसा जगत, अब भी ठीक है, ‘द्वैतवादी जगत’ अब भी ठीक ही। ‘गलत’ बोलेंगे तो वो मन के सॉफ्टवेयर में उलझ कर रह जाएगी वो बात। समझ रहे हैं?
फिर शान्ति से जब दुनिया को देखें, तो उसको ये नाम भी देने की कोई विशेष ज़रूरत नहीं है कि झूठा है, या सच्चा है? नहीं तो ये एक तरह का इल्ज़ाम ही है दुनिया पर- “तू झूठी है।” और इल्ज़ाम कौन लगा रहा है? जो खुद अपनेआप को उस दुनिया का वासी ही मानता है। तो ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि झूठा है।
क्या होता है न कि आध्यात्मिकता में अगर सिद्धांतों का या नैतिकता का मिश्रण हो गया, तो जल्दी ही मन विरोध कर देता है और फिर आध्यात्मिकता भी बहुत दिन चल नहीं पाती। बंदे को ड्रॉप-आउट करना पड़ता है। अब जैसी यही बात…