तुम्हारे भीतर जो चेतना बैठी है, उसकी क्या कीमत है?
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एक आदमी आत्महत्या करने जा रहा था। “मेरे साथ तो बहुत गलत हो गया है, ज़िन्दगी में धोखे-ही-धोखे मिले हैं, और बनाने वाले ने चुन-चुन के अन्याय किए हैं।” तो एक संत ने उसको देखा कि यह जा रहा है आत्महत्या करने। पहले तो उसको रोका, कुछ वचन दिए कि तू समझ, वह आदमी नहीं समझा। उसने कहा, “नहीं, ज़िन्दगी ने मुझे सिर्फ दुःख दिए हैं और मैं ऐसी ज़िन्दगी को ख़त्म करके रहूँगा।” संत ने कहा, “ठीक”। संत वापस आया, उसने अपने एक शिष्य को उसके पास भेजा और कहा कि, “ऐसा करना, उससे कहो कि तू तो मर ही रहा है, तेरा शरीर अब नष्ट हो जाना है, अपनी दोनों आँखें दे दे, हज़ार रूपये दूँगा।
वह गया उसके पास, बोला, “मर ही रहे हो, तुम्हें हज़ार रूपये देंगे, अपनी आँखें दे दो। वैसे भी तुम्हें अपनी गरीबी का भी बड़ा अफ़सोस रहा है। तुम जो शिकायतें करते रहे हो, इस बात पर भी तुम खूब रोए हो कि मैं तो बड़ा गरीब हूँ, ना मेरे बाप के पास पैसा है, ना मेरी परिस्थितयाँ ऐसी कि मैं कुछ कमा पाऊँ, तो लो हज़ार रुपये, तुम्हारे लिए एक अच्छा मौका है।” वो बोलता है, “ले जाओ यहाँ से हज़ार रुपया, मर रहा हूँ इसका मतलब यह थोड़ी है कि आँखें निकलवा लूँगा।”
वह वापस आ गया, संत ने उसका जवाब सुना और हँसा, बोला, “जाओ अब उसको बोलो कि एक लाख दूँगा, आँखें दे दो।”
फिर गया उसके पास, बोलता है, “देखो, कुछ ही देर में तुम्हें मर जाना है, आत्महत्या का तुमने पक्का फैसला कर लिया है, एक लाख मिल रहा है, और जीवन भर तुम एक लाख की कल्पना भी नहीं कर पाए, गरीबी में ही रहे और रोते ही रहे।” उस आदमी ने फिर भगा दिया। बोलता है, “ना, अब बेहूदी बात मुझसे करोगे तो लौट के मत आना। आँखें निकलवा लूँगा क्या!”
संत ने सुना और हँसने लगा। उसने अपने शिष्य को फिर वापस भेजा, कहा, “बस एक आँख दे दो, एक करोड़ दूँगा। मरने से पहले एक आँख निकाल लूँगा तुम्हारी और एक करोड़ दूँगा।” अब वह आदमी बहुत ही नाराज़ हो गया, मारने को उतारू हो गया। वह भाग कर आया, उसने बताया कि यह बात है।
संत खुद उसके पास गया, उसने कहा, “एक आँख का एक करोड़ लेने को राज़ी नहीं हो। तुम्हारी एक आँख अगर तुम एक करोड़ में देने को राज़ी नहीं हो तो निश्चित रूप से यह बात है कि उसकी कीमत करोड़ से ज़्यादा की है। तुम जीवन भर रोए कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, और अब तुम खुद ही कह रहे हो कि तुम्हारी एक आँख करोड़ से ज़्यादा की है। और तुम कहते रहे, ‘मैं गरीब हूँ। मुझे कभी कुछ मिला नहीं; विपन्नता मिली बस।’ एक आँख करोड़ की, तो पूरा शरीर कितने का? और वह पूरा शरीर, जो अमूल्य है, तुम्हें मिला ही हुआ है, तो तुम क्यों शिकायत करते रहे? क्यों शिकायत करते रहे?”
कहानी को आगे बढ़ा सकते हैं, हम जोड़ सकते हैं कि संत ने उससे पूछा कि, “यह भी तो बता दो कि तुम्हारी जो यह निर्णय करने की जो ताकत है, तुम्हारे भीतर जो चेतना बैठी है, जो यह निर्णय कर रही है कि आँख दूँगा या नहीं दूँगा, उस चेतना की क्या कीमत है? वह कितने की है? ठीक वही चेतना जिसका इस्तेमाल करके तुम अपने आप को कोसते रहे, अपने आप को फूटे भाग्य वाला कहते हो, वह चेतना ही कितने की है? यह भी तो देखो! तुम्हें कुछ नहीं मिला, यह समझ तो मिली देख पाने की या वो भी नहीं मिली?”
आचार्य प्रशांत के विषय में जानने, और संस्था से लाभान्वित होने हेतु आपका स्वागत है।