तुम्हारे भीतर छिपा है असीम बल
आचार्य प्रशांत: क्या कर रहे थे आप लोग रात में? शोर मचा रहे थे? लेटा हुआ था मैं, बहुत आवाज़ें आ रही थी। क्या कर रहे थे?
श्रोता: गा रहे थे।
आचार्य: क्या गा रहे थे?
श्रोता: झीनी रे झीनी चदरिया…
आचार्य: क्या अर्थ है उसका? कौन-सी चादर है? किस चादर की बात हो रही है? प्राणी, जीव, जो पूरा ऑर्गेनिज़्म है उसकी बात हो रही है। तन-मन दोनों पर मन बोलना भी ठीक है क्योंकि तन, मन का हीं विस्तार है तो अगर मन भी बोल दिया तो तन उसी में शामिल है। कहाँ हैं आप के सवाल? पर्चे नहीं बनाए?
श्रोता: अवलोकन लिखा है।
आचार्य: अच्छा चलिए पढ़ दीजिए। अगर पढ़ना चाहो तो…
श्रोता: आचार्य जी, कैंप में आने के बाद यहाँ के माहौल में घुलने में बस कुछ क्षण ही लगे। सभी अनजान जनों के बीच कभी भी ये नहीं लगा कि ये कोई और हैं। इनके साथ एक अपनापन महसूस हुआ बिना किसी जुड़ाव के साथ। जो भी गतिविधियाँ यहाँ पर अब तक हुई, उन्हें करने से पहले कोई शंका नहीं रही, कि कर पाएंगे? ये प्रश्न आया ही नहीं। किसी नये काम को करने से पहले जो भय होता था वह मानो कहीं गायब हीं हो गया। आचार्य जी को सुनने के बाद लगा कि जो कुछ है वो अपने आप समा रहा है। कई बार बातें सुनाई भी दे रही थी, कई बार किसी मदहोशी में थी। ये भी लग रहा था अब तक के सफर में जिन चीजों का आभास हुआ वह ये कि जीवन में एक ठहराव आ गया है। इस क्षण में जीना क्या होता है, ये समझ में आ गया है। असीम क्षमताओं का पता चल रहा है, ढोल की थाप हीं थाप सुनाई दे रही है…