तुम्हारी सीमा ही तुम्हारा दुःख है!
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। संबाहुभ्यां धमति सं पततैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः॥
वह एक परमात्मा सब ओर नेत्रों वाला, बाहुओं और पैरों वाला है। वही एक मनुष्य आदि जीवों को बाहुओं से तथा पक्षी-कीट आदि को पंखों से संयुक्त करता है, वहीं इस द्यावा पृथ्वी का रचयिता है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय ३, श्लोक ३)
आचार्य प्रशांत: “वह एक परमात्मा सब ओर नेत्रों वाला, बाहुओं और पैरों वाला है।” हमारे दो ही नेत्र हैं, हमारे दो ही बाहु हैं, हमारे दो ही पैर हैं, और हमारे पास बड़ी व्यग्रताएँ और चिंताएँ हैं। समझो, सब हमारी बेचैनियाँ हमारी सीमाओं से आ रही हैं। तुम्हारे पास जो कुछ है, सीमित है; और तुम्हारे पास चिंता है और तुम्हारे पास शंका है और तुम्हारे पास भय है। संबंध साफ़ दिखाई दे रहा है?
तुम्हारे पास कुछ भी है क्या ऐसा जो असीमित हो? आकार? सीमित; धन? सीमित; अनुभव? सीमित; स्मृति? सीमित; जीवन काल? सीमित; बाहुबल? सीमित; बुद्धि बल? सीमित; ज्ञान? सीमित; और जीवन में चिंता और शंका और भय? निरंतर। इनमें संबंध है आपस में।
चूँकि हम सीमित हैं इसीलिए हम आकुल रहते हैं। हमें पता नहीं न हमारी सीमाओं से आगे क्या है। क्या पता हमारी सीमाओं से आगे कोई बहुत बड़ा खतरा बैठा हो? क्या पता हमारी सीमाओं से आगे कोई ऐसा स्वर्णिम अवसर बैठा हो जो हमें दिखाई नहीं दे रहा और हम चूके जा रहे हैं? तो हमें चैन नहीं आता। तो इसीलिए जो परमात्मा का वर्णन है वो यहाँ पर विशिष्ट तरीके से किया गया है। “वो सब ओर नेत्रों वाला, बाहुओं और पैरों वाला है।” मतलब जितनी सीमाएँ तुम पर लागू होती हैं, उस पर कोई नहीं लागू होती।
इसी बात को और विस्तार दिया जा सकता है। वो सब ओर बुद्धि वाला है, वो सब आयामों का दर्शन करता है, उसका शरीर अनंत है, उसकी बुद्धि सामर्थ्य अनंत है, वो त्रिकालदर्शी है, वो सर्वज्ञ है। जो कुछ भी तुममें क्षीण है, उसमें अनंत है। जो कुछ भी तुममें लघु है, उसमें महत है।
यह जानना ज़रूरी क्यों है? क्योंकि तुम्हारी लघुता ही तो तुम्हारे प्राणों में शूल बनकर घुसी हुई है। जी नहीं पा रहे न उसी के मारे। तुम्हें याद दिलाया जा रहा है कि तुम इस लघुता के पार जा सकते हो। यह आवश्यक नहीं है कि तुम सब तरह के बंधनों में और सीमाओं में अपने-आपको बद्ध मानते ही रहो।
निश्चित ही इसका यह आशय तो नहीं है कि तुम्हारे दो ही हाथ की जगह तुम्हारे अनंत हाथ हो सकते हैं, या दो पाँव की जगह तुम्हारे पचास पाँव हो सकते हैं। ना। लेकिन मानसिक तौर पर तुमने अपनी जितनी सीमाएँ बाँध रखी हैं वो सब सीमाएँ अनावश्यक हैं।
आप कहेंगे, ‘मानसिक सीमाएँ अनावश्यक हैं, शारीरिक सीमाएँ तो हैं न?’
शारीरिक सीमाएँ निश्चित रूप से हैं, लेकिन शारीरिक सीमाएँ बहुत महत्व नहीं रखती क्योंकि तुम हो क्या, शरीर या चेतना?
श्रोतागण: चेतना।
आचार्य: अगर तुम चेतना हो और अगर तुम एक विकल चेतना हो, एक तड़पती हुई चेतना हो, तो तुम्हारे लिए प्रासंगिक ज़्यादा क्या है? महत्वपूर्ण ज़्यादा क्या है? शारीरिक तुम्हारी सब सीमाएँ और शारीरिक तुम्हारी सब अशक्तताएँ या मानसिक? मानसिक न। तो जब मानसिक सीमाएँ, मानसिक चुनौतियाँ ही ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं, तो याद दिलाया जा रहा है तुम्हें कि मानसिक तौर पर छोटे बने रहना आवश्यक बिलकुल भी नहीं है।
जैसे कि यह संभव है कि तुम्हारे दो हाथ हैं और परमात्मा के अनंत, वैसे ही यह संभव है कि फिलहाल तुम बुद्धि के, प्रज्ञा के, चेतना के सिर्फ़ दूसरे तल पर जी रहे हो, और जो परमात्मा रूपी अनंत संभावना है तुम्हारी चेतना की वो अनंतवे तल की हो। जैसे तुम्हारे दो हाथ हैं और कहा जा रहा है परमात्मा के अनंत हाथ हैं, वैसे ही समझ लो कि अभी अगर तुम चेतना के दूसरे तल पर हो तो चेतना के दस-हज़ारवें तल पर हो जाने की तुम्हारी संभावना है, क्योंकि परमात्मा तुम्हारी ही तो संभावना का नाम है।
तुम व्यर्थ ही अपने-आपको मानसिक तौर पर भी संकुचित बनाए बैठे हो। और मानसिक तौर पर जानते हो क्यों संकुचित बनाते हो? देहाभिमान के कारण। अपने-आपको देह बनाते हो और देह क्या है? सीमित। तो मन से भी क्या हो जाते हो? सीमित।
देह की ओर देखते हो और कहते हो ‘यह मैं हूँ, यह मेरी देह है’, और देह को पाते हो कि यह तो हर तरीके से कमज़ोर है, छोटी है, निर्बल है। तो इसी बात को तुम आरोपित कर लेते हो अपने मन पर भी, कि, “जैसे देह में तमाम तरह की निर्बलताएँ हैं, उसी तरीके से मेरा मन भी दुर्बल है।”