तुम्हारी मुक्ति से बड़ा कुछ नहीं

अध्यात्म में व्यस्क पुरुषों की ज़रुरत होती है, मर्दों की। अनाड़ी लड़कों की नहीं। ये लड़कपन के काम हैं कि — मुक्ति को लेकर कल्पना कर रहे हैं। और फिर पकड़े गए तो हँस रहे हैं। कल्पनाओं में जीने की इतनी आदत हो गई है कि मुक्ति की भी कल्पना करते हो।

मुक्ति समझते हो क्या है?

कल्पना से मुक्ति।

और तुमने मुक्ति की भी कल्पना कर ली। कल्पनाएँ, कल्पनाएँ, जैसे हर चीज़ को लेकर कल्पनाएँ हैं- दुनिया को लेकर कल्पना, सुख-सुविधा को लेकर कल्पना, भविष्य को लेकर कल्पना, लड़कियों को लेकर कल्पना, वैसे ही मुक्ति को लेकर भी कल्पना कर डाली। “ऐसी होती होगी मुक्ति,” और उसको नाप भी लिया। जैसे कल्पना में हर चीज़ को लेकर नापते हो, वैसे ही मुक्ति को भी नाप रहे हो।

जानने वाले सौ बार समझा गए — अकथ्य है, अचिंत्य है, अतुल्य है, असंख्य है, अनंत है। और तुम उसे नाप रहे हो।

एक होता है हाइड्रोजन बम, और एक आता है लड़कों के लिए दिवाली पर हाइड्रोजन बम। वो उसी में खुश हो जाते हैं। असली चीज़ चाहिए, या पाँच-सौ वाली लड़ी से काम चला लोगे? अभी इस दिवाली पर देख लेना, बहुत सारे आएँगे बम, पटाखे, लड़िया, फुलझड़ियाँ। किसी का नाम होगा मिराज, किसी का नाम होगा जगुआर, किसी का रफ़ाएल। और लड़के उसी को लेकर घूम रहे होंगे — “मिल गया।” लड़कों के खेल।

हम चाहकर भी झुक नहीं पाते न। हम बहुत स्मार्ट (चतुर) हैं। ये बात हमें कल्पना में भी नहीं आती कि हमसे आगे भी कुछ हो सकता है।

हम थ्योरी में, प्रिंसिपल में, सिद्धान्त में भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते कि — “कुछ ऐसा सकता है, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।” ये बातें हमें बर्दाश्त ही नहीं होतीं।

हम अपनी-अपनी नज़रों में बहुत समझदार, बहुत बहादुर हैं। स्मार्ट!

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org