तुम्हारा दुश्मन तुम्हारे भीतर बैठ शासन कर रहा है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। कल आपने अनुशासन के बारे में कहते हुए 'शासन' शब्द को अलग करके उसके विषय में भी बताया था। आपने कहा था कि, "व्यक्ति वास्तव में जान जाए कि कौन है, जो सच्चा है और उसमें शासित हो जाए।"

मैं जब अपना जीवन देखता हूँ तो पाता हूँ कि मैं सारी ग़लत धारणाओं और शिक्षाओं में ही शासित हो रहा हूँ। और वो जो मुझे उनमें शासित होने के लिए मजबूर करते हैं उनका अपना एक बल है, उनकी अपनी एक धारा है। आपके पास आने से मेरा अनुभव तो होता है कि हाँ, आप सही हैं और जो सीखने को मिल रहा है वो सच है। पर उसमें शासित होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ। कृपया राह बताएँ।

आचार्य प्रशांत: सच के ख़िलाफ़ जिन उल्टी ताक़तों की आप बात कर रहे हैं कि वो आप पर शासन करने लगती हैं, आप पर हावी होकर आपको नियंत्रित करने लगती हैं। अगर वो ताक़तें पूर्णतया बाहरी हों, तो फिर कोई फ़र्क़ ना पड़े आप पर।

आमतौर पर हम जब कहते हैं कि कोई हम को भ्रमित कर देता है, कोई हमको बरगला देता है, कोई हमारे मन पर छा जाता है, कोई हम पर हावी हो जाता है, तो हमारा आशय ये होता है कि बाहर वाला कोई है, जो अपनी धूर्तता से और अपने बल से चढ़ बैठा हो हम पर। उल्टी ताक़तें जब तक बाहर की हैं तब तक कोई ख़तरा नहीं। बाहर की उल्टी ताक़त आप पर अगर हावी होती है तो इसलिए क्योंकि उसने आपके भीतर, अपना एक सहायक, एक मित्र खड़ा कर दिया है। बाहर के बैरी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाते अगर आपके अंदर आपका बैरी ना बैठा होता।

आपका कुछ बिगड़ तो रहा ही है, इतना आप जानते हैं- दिन पूरा व्यर्थ बीत जाता है, चिंता, तनाव, झगड़े, कलह-क्लेश में गुज़र जाता है। ये एहसास आपको भी रहता है कि समय ख़राब हो रहा है, दिमाग ख़राब हो रहा है, जीवन ख़राब हो रहा है। इतना तो आप समझते हैं कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है। लेकिन उस गड़बड़ की पूरी ज़िम्मेदारी आप बाहर के बैरी पर डाल देते हैं। आप कहते हैं कि, "मुझे उल्टी राह चलनी पड़ रही है इन बाहर वालों की वजह से।" वो कोई बाहरी व्यक्ति हो सकता है, कोई बाहरी परिस्थिति हो सकती है, अतीत की कोई घटना हो सकती है, वो भी बाहरी बात ही है।

मैं इनकार नहीं कर रहा कि बाहर बहुत कुछ है जो आपकी शांति के प्रतिकूल होता है। बाहर बहुत कुछ है जो आपकी शांति के प्रतिकूल होता है, लेकिन वो कुछ नहीं बिगाड़ पाता आपका अगर आपके भीतर ही कोई ना बैठा होता जो ख़ुद शांति का विरोधी है।

बाहर वाला जब तक बाहर वाला है वो जीता नहीं, भले ही बाहर वो कितना भी बल इकट्ठा किए खड़ा हो। कहाँ खड़ा है वो? बाहर ही तो खड़ा है, अभी वो जीता नहीं। बाहर वाले की, बाहरी ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। आपका बिगड़ता तब है जब बाहर वाला धीरे-धीरे आपकी बेहोशी का फायदा उठा करके, या सच के प्रति आपकी अश्रद्धा का फायदा उठा कर के आपके भीतर घुस जाता है। वो भीतर घुस गया और उसने आपके भीतर अपना एक सहायक छोड़ दिया, अपना एक गुप्तचर, अपना एक भेदी…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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